सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ: ।। 42 ।।
शब्दार्थ :- सन्तोषात् ( पूर्ण संतुष्टि से ) अनुत्तम ( सबसे उत्तम अर्थात सर्वश्रेष्ठ ) सुखलाभः ( सुख की प्राप्ति होती है । )
सूत्रार्थ :- सन्तोष अर्थात संतुष्टि का पूरी तरह से पालन करने से साधक को सभी सुखों से उत्तम अर्थात सर्वश्रेष्ठ सुख की प्राप्ति होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में सन्तोष के लाभ को बताया गया है ।
सभी व्यक्ति सामान्य बोलचाल में कहते हैं कि सब्र का फल हमेशा मीठा होता है । अर्थात जो व्यक्ति किसी भी कर्म के फल में शान्ति व संतुष्टि रखता है तो उसका परिणाम सुखदायी होता है ।
इसी प्रकार योगसूत्र भी कहता है कि जो साधक सन्तोष का पालन पूरी तरह से करते हैं । उनको इस दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सुख की प्राप्ति होती है । सर्वश्रेष्ठ सुख वह होता है जिससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं होता है । उस महान सुख की कोई बराबरी नहीं कर सकता है ।
सन्तोष से मिलने वाले सुख को अनन्त व परम सुख कहा है ।
जिन भौतिक सुखों को हम सुख समझते हैं । उन सभी सुखों की अपेक्षा सन्तोष से मिलने वाला सुख महान होता है । वह सुख स्वर्ग के समान होता है । यदि हम सन्तोष से प्राप्त होने वाले सुख की भौतिक सुख से तुलना करें तो भौतिक सुख सन्तोष जन्य सुख के सोहलवें भाग के बराबर भी नहीं होता ।
कुछ व्यक्ति सन्तोष के अर्थ को समझने में भूल कर देतें हैं । वह समझते हैं कि सन्तोष का अर्थ है जो भी जितना भी मिल जाए उसी में सब्र करना सन्तोष है । जबकि सन्तोष की परिभाषा है कि घनघोर ( सम्पूर्ण ) पुरुषार्थ अर्थात मेहनत करने के बाद जो फल प्राप्त होता है उसमें सन्तुष्टि करना ही सन्तोष है ।
जब कोई भी व्यक्ति सन्तोष के इस भाव को अपने जीवन में आत्मसात ( अपना लेना ) कर लेता है तो उसे वास्तव में महान सुख की प्राप्ति होती है । क्योंकि जिस व्यक्ति ने पुरुषार्थ करना सीख लिया है वही व्यक्ति संतुष्टि को समझ सकता है ।
इसलिए सन्तोष से प्राप्त होने वाले सुख को स्वर्ग के समान महान व अनन्त सुख कहा है ।