तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ।। 55 ।।

शब्दार्थ :- तत: ( उसके बाद अर्थात प्रत्याहार की सिद्धि होने पर ) परमा ( परम अर्थात सबसे ऊँचा ) वश्यता ( वशीकरण अर्थात नियंत्रण ) इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों पर आता है ।)

सूत्रार्थ :- उस प्रत्याहार के सिद्ध होने से योगी साधक का इन्द्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण हो जाता है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में प्रत्याहार के लाभ को बताया गया है ।

जब योगी प्रत्याहार के माध्यम से अपनी सभी इन्द्रियों को अपने अन्तर्मुखी कर लेता है तो उसका इन्द्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण हो जाता है । अर्थात सभी इन्द्रियाँ उसके वश में आ जाती हैं । यह इन्द्रियों का  उत्कृष्ट अर्थात सबसे उन्नत नियंत्रण होता है ।

इस प्रकार इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होने से साधक जितेन्द्रिय कहलाता है । जितेन्द्रिय का अर्थ है जिसने अपनी इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त कर ली हो । इसे इन्द्रियजय भी कहते हैं ।

इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होने से वह अपनी इच्छाओं से किसी भी प्रकार के विषयों में आसक्त नहीं होती हैं । उस समय वह केवल निरुद्ध हो चुके चित्त का ही अनुसरण करती हुई स्वयं भी निरुद्ध हो जाती हैं । इस अवस्था में एक- एक इन्द्री को अलग- अलग वश में करने की आवश्यकता नहीं होती है । यह चित्त रानी मधु मक्खी की भाँति इन सबको एक साथ ही नियंत्रण में रखता है ।

इन्द्रियजय के विषय में सभी विद्वानों के अलग- अलग मत हैं । जिनमें आचार्य जैगीषव्य के मत को सबसे ज्यादा प्रमाणिक मानते हुए महर्षि व्यास कहते हैं कि “चित्त की एकाग्रता के कारण इन्द्रियों का विषय – भोगों में अनासक्त अर्थात अभाव हो जाना ही इन्द्रियजय है” ।

इस प्रकार प्रत्याहार के सिद्ध होने से इन्द्रियों का उनके बाहरी विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता । और वह पूरी तरह से योगी साधक के वश में होती हैं ।

इसी सूत्र के साथ अष्टांग योग के पाँच बाहरी अंगों ( यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार ) का वर्णन पूरा हुआ । अब आगे विभूतिपाद में अष्टांग योग के आंतरिक अंगों  धारणा, ध्यान, समाधि व संयम से प्राप्त विभूतियों अर्थात सिद्धियों का वर्णन किया जाएगा ।

इसी के साथ साधनपाद समाप्त हुआ ।

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  1. ??प्रणाम आचार्य जी! समय के साथ साथ नित्यप्रति यह आशीर्वाद रूपी सुन्दर ज्ञान हर नये प्रभात की एक नई किरन की मुस्कान की तरह यह अमूल्य उपहार हम सब जीवो को सदा आपका कृतार्थ बनाये रखेगा! आपको बारम्बार प्रणाम आचार्य जी! धन्यवाद! ओ3म्? ?

  2. ॐ गुरुदेव*
    आपका परम आभार ।
    आप ऐसे ही हम समस्त योगार्थियों के मन रूपी
    वाटिका को योग रूपी ज्ञानामृत से अभिसिंचित
    करते रहें। ऐसी हामरी विनती है । साथ ही साथ ईश्वर से प्रार्थना है कि वह परमपिता आपको अपने दिव्य ज्ञान से
    नित्य प्रति आलोकित करता रहे व अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखे।
    आपको आपके परम निष्काम पुरुषार्थ के लिए कोटि _कोटि धन्यवाद।

  3. Pranaam Sir! ?? You are really doing a great job by promoting us on yoga mats. Your in depth and through knowledge is helping us clear our doubts and motivating us. Thank you very much.

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