साधनपाद योगसूत्र का द्वितीय अध्याय है । जिसमें मुख्य रूप से क्रियायोग व अष्टांग योग का वर्णन किया गया है । योगसूत्र के साधनपाद का पहला ही सूत्र है ।   तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ।। 1 ।।   शब्दार्थ :- तपः, ( सुख- दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि द्वन्द्वों को सहना ) स्वाध्याय, (

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Yoga Sutra 2 – 1

समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च ।। 2 ।।   शब्दार्थ :- समाधिभावनार्थ:, ( वह क्रियायोग समाधि को सिद्ध करने वाला ) च, ( व ) क्लेशतनूकरणार्थ:, ( अविद्या आदि कलेशों को कमजोर करने वाला होता है । )   सूत्रार्थ :- वह अर्थात क्रियायोग साधक को समाधि की प्राप्ति व उसके अविद्या आदि कलेशों को कमजोर या असहाय

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Yoga Sutra 2 – 2

अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पञ्च कलेशा: ।। 3 ।।   शब्दार्थ :- अविद्या, ( सुख को दुःख और दुःख को सुख समझना  ) अस्मिता, ( कर्ता व कर्म को एक ही मानना ) राग, ( अत्यधिक आसक्ति अथवा प्रेम ) द्वेष, ( अत्यधिक कटुता या नफरत ) अभिनिवेश, ( मृत्यु का भय मानना यह ) पंच, ( पाँच

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Yoga Sutra 2 – 3

अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ।। 4 ।।   शब्दार्थ :- प्रसुप्त, ( कलेशों की निष्क्रिय या सोई हुए स्थिति ) तनु, ( निर्बल या शान्त स्थिति ) विच्छिन्न, ( जागृत या रुक- रुककर उभरने वाली स्थिति ) उदार, ( कलेशों की तीव्र या प्रभावी स्थिति ) उत्तरेषाम् ( जिनका वर्णन इससे पहले के सूत्र में किया

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Yoga Sutra 2 – 4

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु  नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।। 5 ।।     शब्दार्थ :- अनित्य, ( जो नाशवान अर्थात जिसका अन्त निश्चित हो जैसे – मनुष्य का शरीर ) अशुचि, ( अशुद्ध या अपवित्र ) दुःख, ( कष्ट या तकलीफ और ) अनात्मसु, ( अचेतन )  को क्रमशः नित्य, ( अन्नत अर्थात जिसका कभी भी अन्त न हो जैसे –

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Yoga Sutra 2 – 5

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ।। 6 ।।    शब्दार्थ :- दृक्- दर्शन- शक्त्यो:, ( दृक् शक्ति अर्थात जिसके द्वारा देखा जाए – दर्शन शक्ति अर्थात जिस साधन के द्वारा देखा जाए ) इन दोनों की एकात्मता इव ( एकरूपता अर्थात इन दोनों को एक ही समझना ) अस्मिता, ( अस्मिता नामक क्लेश है । )   सूत्रार्थ :-

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Yoga Sutra 2 – 6

सुखानुशयी राग: ।। 7 ।। शब्दार्थ :- सुख, ( आनन्द ) अनुशयी, ( भोगने के बाद उसी आनन्द को प्राप्त करने की इच्छा बनी रहना ही ) राग, ( राग नामक क्लेश है । ) सूत्रार्थ :- सुख या आनन्द को भोगने अर्थात एक बार प्राप्त करने के बाद, उसी सुख या आनन्द को बार-

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Yoga Sutra 2 – 7