साधनपाद योगसूत्र का द्वितीय अध्याय है । जिसमें मुख्य रूप से क्रियायोग व अष्टांग योग का वर्णन किया गया है । योगसूत्र के साधनपाद का पहला ही सूत्र है ।

  तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ।। 1 ।।

 

शब्दार्थ :- तपः, ( सुख- दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि द्वन्द्वों को सहना ) स्वाध्याय, ( गायत्री मन्त्र आदि का जप एवं मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना ) ईश्वरप्रणिधान, ( बिना किसी फल की इच्छा के अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित कर देना ) क्रियायोग, ( क्रियायोग अर्थात इन तीनो क्रियाओं का एक साथ पालन करना क्रियायोग कहलाता है । )

 

सूत्रार्थ :- सुख-दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि सभी द्वन्द्वों को आसानी से सहन करना, गायत्री आदि मन्त्रो का जप व मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थों का अध्ययन करना व अपने समस्त कर्मों को बिना किसी तरह के फल की इच्छा के ईश्वर में समर्पित कर देना ही क्रियायोग कहलाता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में क्रियायोग के स्वरूप को बताया गया है । क्रियायोग एक योग साधना मार्ग है । जिसके तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान तीन अंग हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –

  1. तप :- तप क्रियायोग का पहला अंग है । तप का अर्थ है सभी प्रकार के द्वन्द्वों को सहजता से सहन करना । अब प्रश्न उठता है कि यह द्वन्द्व क्या हैं ? द्वन्द्व का अर्थ है विपरीत परिस्थितियों का आना । जैसे – सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ – हानि, जय- पराजय, सुख- दुःख व मान- अपमान आदि परिस्थितियों का आना । जब एक योगी साधक साधना करता है तो उसे इस प्रकार के द्वन्द्व परेशान करते हैं ।

 

साधनाकाल में इन सभी द्वन्द्वों को सहजता पूर्वक सहन करना ही तप कहलाता है । अर्थात सुख को देखकर इतराना नहीं, दुःख को देखकर घबराना नहीं, मान- सम्मान मिलने पर घमण्ड न करना और अपमान होने पर अपमानित महसूस न करना ही तप कहलाता है ।

सभी अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आप को सम बनाएं रखना । जब तक स्वर्ण ( सोना ) आदि धातुओं को अग्नि में नहीं तपाया जाएगा, तब तक उनके दोष दूर नही हो सकते । ठीक उसी प्रकार जब तक तप रूपी भठ्ठी में साधक को न तपाया जाए, तब तक वह साधक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ।

योग मार्ग में जिसने तप नहीं किया है उसका योग कभी सिद्ध नहीं होता है । अतः तप को क्रियायोग का पहला अंग बताते हुए इसकी पालन की बात कही है । कुछ व्यक्तियों का मानना है कि तप का अर्थ है अपने शरीर को तकलीफ या कष्ट देना । जैसे-  चारों तरफ अग्नि जलाकर उसके बीच में बैठना या एक पैर पर कई महीनों तक खड़े रहना आदि- आदि । लेकिन यह तप का निकृष्ट ( निचला ) स्तर है । गीता में भी तप को बताते हुए इस प्रकार के कष्टकारी तप को तामसिक तप कहा है ।

योगदर्शन में तप के पालन की बात करते हुए कहा है कि तप में जो तपस्या होती है वह चित्त को प्रसन्न करने वाली होनी चाहिए न कि दुःखी करने वाली । अतः तप का वास्तविक स्वरूप द्वन्द्वों को सहजता पूर्वक, बिना किसी दिखावे के सहन करना ही तप है ।

 

  1. स्वाध्याय :- स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है स्वंम का अध्ययन या अवलोकन करना । यहाँ पर स्वाध्याय का अर्थ है गायत्री आदि वैदिक मंत्रों का अर्थ सहित जप करना । व जो भी मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थ जैसे वेद, उपनिषद आदि हैं उनका अध्ययन करना ही स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय करने से साधक को सही – गलत का ज्ञान हो जाता है । स्वाध्याय से ही साधक को पता चलता है कि कौन से कर्म करने योग्य हैं और कौन से करने योग्य नहीं हैं ? । इसलिए स्वाध्याय शील व्यक्ति हमेशा जीवन में उन्नति करता है ।

 

  1. ईश्वरप्रणिधान :- ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है अपने सभी अच्छे व बुरे कर्मों का समर्पन ईश्वर में कर देना व उसके बदले किसी भी प्रकार के फल की आशा न करना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है ।

इसमें भगवान के प्रति अनन्य ( उच्चतम ) भक्ति का परिचय दिया गया है । जब साधक पूरी सृष्टि का संचालक उस ईश्वर को मानने लगता है तब वह समस्त कर्मों, पदार्थों, धन – धान्य व प्राकृतिक पदार्थों को ईश्वर प्रदत्त ( ईश्वर द्वारा दिया गया ) मानकर उन सभी का समर्पण ईश्वर में ही कर देता है । तब भक्ति की यह उच्च अवस्था ईश्वर प्रणिधान कहलाती है ।

महर्षि पतंजलि ने समाधिपाद में भी ईश्वर प्रणिधान की महत्ता का प्रतिपादन किया है । ईश्वर प्रणिधान को उच्च योगियों की साधना माना है । अर्थात जो उच्च कोटि के योग साधक होते हैं जिनके पिछले जन्म के संस्कार मजबूत होते हैं । वह साधक केवल ईश्वर प्रणिधान के पालन से भी समाधि की प्राप्ति कर सकते हैं ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    क्रियायोग की अत्यंत सरल शब्दों में व्याख्या कर आपने हम सभी योगार्थियों के ऊपर महान कृपा की है।
    आपको पुनः _पुनः धन्यवाद।

  2. Pranaam Sir!?? The importance of Tapa swadhayay are so we’ll explained. It is the most needed thing today.

  3. Pranaam Sir!?? The importance of Tapa swadhayay are so well explained. It is much needed thing in today’s time.

  4. आचार्य आपका बहोत धन्यवाद और अभिनंदन !
    बहोत ही सरल भाषा में योगसुत्र का विश्लेषण करने के लिये!

    I have one question

    What is the difference between KRIYA YOGA and ASHTANGA YOGA ?

    Maharshi Patanjali said TAPA, SWADHYAYA, ISHWARPRANIDHAN commonly in both type of Yoga..?

    Which one we have to follow..??

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