तृतीय अध्याय ( मुद्रा प्रकरण )   घेरण्ड संहिता के तीसरे अध्याय का विषय मुद्रा है । जिसमें ऋषि घेरण्ड ने सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है । मुद्रा के फल को बताते हुए कहा है कि मुद्राओं का अभ्यास करने से साधक को स्थिरता प्राप्त होती है ।  

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Gheranda Samhita Ch. 3 [1-5]

महामुद्रा विधि वर्णन   पायुमूलं वाम गुल्फे सम्पीड्य दृढ़यत्नतः । याम्यपादं प्रसार्याथ करे धृतपदाङ्गुल: ।। 6 ।। कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा भ्रुवोर्मध्ये निरीक्षीयत् । महामुद्राभिधा मुद्रा कथ्यते चैव सूरिभि: ।। 7 ।।   भावार्थ :-  बायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार के मूल भाग ( अंडकोशों व गुदाद्वार के बीच में ) पर पूर्ण प्रयास के

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Gheranda Samhita Ch. 3 [6-11]

जालन्धर बन्ध विधि व फल वर्णन   कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा चिबुकं हृदयेन्यसेत् । जालन्धर कृते बन्धे षोडशाधारबन्धनम् । जालन्धरमहामुद्रा मृत्योश्च क्षयकारिणी ।। 12 ।। सिद्धं जालन्धरं बन्धं योगिनां सिद्धिदायकम् । षण्मासमभ्सद्यो यो हि स सिद्धो नात्र संशय: ।। 13 ।।   भावार्थ :- किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर अपने कण्ठ को सिकोड़कर ठुड्डी को

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Gheranda Samhita Ch. 3 [12-17]

महाबन्ध वर्णन   वामपादस्य गुल्फेन पायुमूलं निरोधयेत् । दक्षपादेन तद्गुल्फं संपीड्य यत्नतः सुधी: ।। 18 ।। शनै: शनैश्चालयेत् पार्ष्णिं योनिमाकुञ्चयेच्छन: । जालन्धरे धारयेत् प्राणं महाबन्धो निगद्यते ।। 19 ।।   भावार्थ :-  बायें पैर की एड़ी से गुदामार्ग को दबाकर उसका निरोध करते हुए दायें पैर की एड़ी से योनिस्थान को प्रयास पूर्वक दबाएं ।

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Gheranda Samhita Ch. 3 [18-24]

खेचरी मुद्रा विधि   जिह्वाधो नाडीं सञ्छिन्नां रसनां चालयेत् सदा । दोहेयेन्नवनीतेन लौहयन्त्रेण कर्षयेत् ।। 25 ।। एवं नित्यं समभ्यासाल्लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् । यावद् गच्छेद् भ्रुवोर्मध्ये तदागच्छति खेचरी ।। 26 ।। रसनां तालुमध्ये तु शनै: शनै: प्रवेशयेत् । कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा । भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 27 ।।   भावार्थ :- जीभ

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Gheranda Samhita Ch. 3 [25-32]

विपरीतकरणी मुद्रा विधि   नाभिमूलेवसेत् सूर्यस्तालुमूले च चन्द्रमा: । अमृतं ग्रसते सूर्यस्ततो मृत्युवशो नर: ।। 33 ।। ऊर्ध्वं च योजयेत् सूर्यञ्चन्द्रञ्च अध आनयेत् । विपरीतकरणी मुद्रासर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 34 ।। भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मं समाहित: । उर्ध्वपाद: स्थिरो भूत्वा विपरीतकरी मता ।। 35 ।।   भावार्थ :- मनुष्य के शरीर में सूर्य नाभि के मूलभाग

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Gheranda Samhita Ch. 3 [33-36]

योनिमुद्रा विधि वर्णन   सिद्धासनं समासाद्य कर्णचक्षुर्नसोमुखम् । अङ्गुष्ठतर्जनीमध्यानामादिभिश्च साधयेत् ।। 37 ।। काकोभि: प्राणंसङ्कृष्य अपाने योजयेत्तत: । षट्चक्राणि क्रमाद् ध्यात्वा हुं हंसमनुना सुधी: ।। 38 ।। चैतन्यमानयेद्धेवीं निद्रिता या भुजङ्गिनी । जीवेन सहितां शक्तिं समुत्थाप्य कराम्बुजे ।। 39 ।। शक्तिमय: स्वयं भूत्वा परं शिवेन सङ्गमम् । नानासुखं विहारञ्च चिन्तयेत् परमं सुखम् ।। 40 ।।

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Gheranda Samhita Ch. 3 [37-48]