महामुद्रा विधि वर्णन
पायुमूलं वाम गुल्फे सम्पीड्य दृढ़यत्नतः ।
याम्यपादं प्रसार्याथ करे धृतपदाङ्गुल: ।। 6 ।।
कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा भ्रुवोर्मध्ये निरीक्षीयत् ।
महामुद्राभिधा मुद्रा कथ्यते चैव सूरिभि: ।। 7 ।।
भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार के मूल भाग ( अंडकोशों व गुदाद्वार के बीच में ) पर पूर्ण प्रयास के साथ लगाते हुए उसको एड़ी से दबाएं । अब दायें पैर को सामने की तरफ फैलाते हुए दोनों हाथों से दायें पैर के अँगूठे को पकड़ें । इसके बाद अपने कण्ठ अर्थात् गले को सिकोड़ते हुए अपनी दोनों भौहों ( दोनों आँखों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ) के बीच में देखें । विद्वानों ने इसे महामुद्रा का नाम दिया है ।
महामुद्रा का फल
क्षयकासं गुदावर्त्तं प्लीहाजीर्णज्वरं तथा । नाशयेत्सर्वरोगांश्च महामुद्रा च साधनात् ।। 8 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा के अभ्यास से साधक के क्षय व कासं रोग अर्थात् श्वास व बलगम सम्बन्धी रोग जैसे दमा व खाँसी आदि, गुदाद्वार के फोड़े या बवासीर व भगन्दर आदि रोग, प्लीहा ( मूत्र मार्ग से धातुओं का बहना ), पुराना बुखार आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं ।
विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि महामुद्रा से कौन से रोग नष्ट होते हैं ? जिसका उत्तर ऊपर भावार्थ में दिया गया है ।
नभोमुद्र विधि व फल वर्णन
यत्र यत्र स्थितो योगी सर्वकार्येषु सर्वदा ।
ऊर्ध्वजिह्व: स्थिरो भूत्वा धारयेत् पवनं सदा ।
नभोमुद्रा भवेदेषा योगिनां रोगनाशिनी ।। 9 ।।
भावार्थ :- योगी को सदा अपने सभी कार्यों को करते हुए एक जगह स्थित अथवा स्थिर होकर अपनी जीभ को ऊपर आकाश की ओर करते हुए उससे वायु को धारण अर्थात् वायु का पान करना चाहिए । इसे नभोमुद्रा कहा जाता है । इसका अभ्यास करने से योगी साधकों के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं ।
विशेष :- नभोमुद्रा के सम्बंध में पूछा जा सकता है कि नभोमुद्रा में साधक द्वारा किसका सेवन या पान किया जाता है ? जिसका उत्तर है वायु ।
उड्डीयान मुद्रा विधि व फल वर्णन
उदरे पश्चिमं तानं नाभेरूर्ध्वं तु कारयेत् ।
उड्डानं कुरुते यस्माद विश्रान्तं महाखग: ।
उड्डीयानं त्वसौ बन्धो मृत्युमातङ्गकेसरी ।। 10 ।।
समग्राद् बन्धनादेतदुड्डीयानं विशिष्यते ।
उड्डीयाने समभ्यस्ते मुक्ति: स्वाभाविकी भवेत् ।। 11 ।।
भावार्थ :- पेट में स्थित नाभि प्रदेश व उससे ऊपर के भाग को पीछे की ओर खींचना उड्डीयान बन्ध कहलाता है । उड्डीयान बन्ध से प्राण ऊर्जा निरन्तर ऊपर की ओर उर्ध्वगामी होती है । यह उड्डीयान बन्ध मृत्यु रूपी हाथी के सामने शेर के समान होता है । इस उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों में विशिष्ट ( प्रमुख ) माना गया है । उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करने से साधक को बिना किसी विशेष प्रयास के स्वयं ही मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
विशेष :- उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों ( उड्डीयान, जालन्धर व मूलबन्ध ) में श्रेष्ठ माना गया है । विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी जानकारी है । उड्डीयान बन्ध के सम्बंध में कुछ अन्य प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं । जैसे – किस यौगिक क्रिया से पूर्व हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ? जिसका उत्तर है नौलि क्रिया । उड्डीयान बन्ध में श्वास की स्थिति क्या होती है ? जिसका उत्तर है श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोककर अर्थात् बह्यवृत्ति प्राणायाम की स्थिति में उड्डीयान बन्ध का अभ्यास किया जाता है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्राण का रेचन करके हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।
धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव!
आपका बहुत बहुत आभार।
Guru ji best explain.
Namaste!
Very good efforts, Bandhu!
please provide photos for Mudras, asanas and Pranayama. It will be helpful for all in this digital edition to publish videos with respective Sanskrit shloka.