आकाशीय धारणा मुद्रा विधि वर्णन
यत् सिन्धौ वरशुद्धवारिसदृशं व्योमं परं भासितं तत्त्वं देवसदाशिवेन सहितं बीजं हकारान्वितम् ।
प्राणां विनीय पञ्चघटिकांश्चित्तान्वितां धारयेत् ऐषा मोक्षकपाटभेदनकरी कुर्यान्नभोधारणा ।। 80 ।।
भावार्थ :- इस आकाशीय धारणा मुद्रा का वर्ण अर्थात् रंग सिन्धु नदी के जल जैसा होता है । यह आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है । यह इसका बीजमन्त्र ‘हँ’ अथवा हकार होता है । इसके देवता स्वयं भगवान शिव हैं । शरीर में इसका स्थान कण्ठ कहा जाता है । जिससे इसका चक्र विशुद्धि होता है । प्राणों को शरीर के अन्दर भरकर उन्हें पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक शरीर के अन्दर ही रोककर रखते हुए चित्त में स्थिर करें । इस प्रकार यह आकाशीय धारणा मुद्रा मोक्ष के द्वार का भेदन करने वाली कही गई है । इसे नभो धारणा भी कहा जाता है ।
विशेष :- परीक्षा से सम्बंधित कुछ आवश्यक प्रश्नों का वर्णन इस प्रकार है :- इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है आकाश । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है शुद्ध जल जैसा । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘हँ’ अथवा हकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है विशुद्धि चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे कहा जाता है ? उत्तर है शिव । इस मुद्रा को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है ? उत्तर है नभो धारणा मुद्रा । इसे मोक्ष के द्वार का भेदन करने वाली मुद्रा कहा जाता है ।
आकाशीय धारणा मुद्रा का फल
आकाशीयधारणां मुद्रां यो वेत्ति सैव योगवित् ।
न मृत्युर्जायते तस्य प्रलये नाव सीदति ।। 81 ।।
भावार्थ :- आकाशीय धारणा मुद्रा को जानने वाले को योग का ज्ञानी अथवा जानकर माना जाता है । उसकी कभी मृत्यु नहीं होती है और वह प्रलय अर्थात् सृष्टि के विनाश के समय भी दुःखी नहीं होता है ।
विशेष :- आकाशीय मुद्रा के जानने वाले को ज्ञानी माना जाता है । इसके अलावा उसकी मृत्यु भी नहीं होती और न ही वह प्रलयकाल में दुःखी होता है ।
Nice guru ji.
ॐ गुरुदेव!
बहुत सुन्दर व्याख्या।