छठा अध्याय ( आत्मसंयम योग ) इस अध्याय में योग में सहायता प्रदान करने वाले कारकों का वर्णन करते हुए कहा है कि मनुष्य स्वयं ही अपनी आत्मा का मित्र व शत्रु होता है । व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहिए । इसके लिए उसे अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [1-3]

विषयों व कर्मफल की आसक्ति का त्याग = योग सिद्धि     यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।। 4 ।।     व्याख्या :-  जब साधक इन्द्रियों के विषयों व कर्मफल की आसक्ति का त्याग कर देता है, तब वह सभी कामनाओं अथवा इच्छाओं का त्याग करने वाला साधक योगारूढ़ अर्थात् योगी

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [4-6]

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। 7 ।।     व्याख्या :-  जिसने अपनी आत्मा को जीत कर परम शान्ति को प्राप्त कर लिया है, वह योगी शीत- उष्ण ( सर्दी- गर्मी ), सुख- दुःख व मान – अपमान आदि द्वन्द्वों में भी स्वयं को समाहित अर्थात् अपने चित्त को समभाव की

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [7-9]

ध्यानयोग की विधि   योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।। 10 ।।     व्याख्या :-  योगी पुरुष द्वारा एकान्त स्थान में बैठकर मन और इन्द्रियों को अपने वश में करना चाहिए और अनावश्यक विचार व वस्तुओं को त्यागकर अपने चित्त को आत्मा में लगाते हुए निरन्तर उसका ध्यान करना चाहिए

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [10-12]

आसन की स्थिर स्थिति   समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ।। 13 ।। प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।। 14 ।।       व्याख्या :-  अपने शरीर को आसन में स्थिर करके, कमर ( पीठ ), गर्दन व सिर को बिलकुल सीधी रखते हुए, अपनी

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [13-15]

योगी का आहार – विहार कैसा हो ?   नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।। 16 ।। युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। 17 ।। यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।। 18 ।।       व्याख्या :-   हे अर्जुन ! यह

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [16-18]

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।। 19 ।।     व्याख्या :-  जिस प्रकार वायुरहित ( जहाँ पर वायु का आवागमन न हो ) स्थान पर रखे हुए दीपक की ज्योति अर्थात् लौ निश्चल अर्थात् स्थिर होती है, वैसी ही निश्चल अथवा स्थिर अवस्था संयमित चित्त वाले योगी साधक

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Bhagwad Geeta Ch. 6 [19-22]