योगी का आहार – विहार कैसा हो ?

 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।। 16 ।।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। 17 ।।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।। 18 ।।
 

 

 

व्याख्या :-   हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत ज्यादा खाने वाले का और न बिलकुल न खाने वाले अर्थात् बहुत कम खाने वाले का तथा न तो बहुत ज्यादा सोने वाले का और न ही बहुत ज्यादा जागने वाले का सिद्ध होता है ।

 

यह योग किसका सिद्ध होता है ?

 

जिसका आहार- विहार नियमित है, अर्थात् जो सदा भोजन व व्यवहार में अनुशासित रहता है, कर्मों में जिसकी चेष्टा नियमित है अर्थात् जो नियमित रूप से कर्म करता है, जिसका सोना व जागना नियमित है अर्थात् जो समय पर सोता और जागता है, केवल उसी अनुशासित व्यक्ति को यह दुःखों का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है ।

 

इस प्रकार जब यह संयमित चित्त पूर्ण रूप से आत्मा में स्थिर हो जाता है, तब वह योगी सभी प्रकार की कामनाओं की लालसा से मुक्त होकर योगयुक्त हो जाता है अर्थात् उसका योग सिद्ध हो जाता है ।

 

 

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित दोनों ही श्लोक परीक्षा व व्यवहार की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं । इनसे सम्बंधित कुछ प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे – किन – किन व्यक्तियों का अथवा किस प्रकार का व्यवहार करने वालों का योग सिद्ध नहीं होता ? जिसका उत्तर है- यह योग न तो अधिक खाने वाले का और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न बहुत सोने वाले का और न ही ज्यादा जागने वाले का सिद्ध होता है ।

 

यह योग किनका सिद्ध होता है अथवा योग सिद्धि के क्या – क्या लक्षण हैं ? जिसका उत्तर है- जिसका आहार- विहार नियमित है, जिसकी कर्मों में चेष्टा नियमित है, जो समय पर सोता व जागता है, उसी का योग सिद्ध होता है ।

 

उपर्युक्त बातें केवल परीक्षा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि हमारे व्यक्तिगत जीवन के लिए भी बहुत उपयोगी हैं । गीता के प्रत्येक श्लोक में ज्ञान का अद्भुत भण्डार भरा पड़ा है, आवश्यकता केवल इसे अपने जीवन में आत्मसात करने की है ।

 

गीता का ज्ञान केवल पढ़ने अथवा पढ़ाने के लिए ही नहीं बल्कि अपने जीवन में धारण करने के लिए किया गया है । आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व जो स्थिति मोह में फंसे हुए अर्जुन की थी । वही स्थिति आज वर्तमान समय में लाखों- करोड़ों लोगों की है ।

 

 

जिस प्रकार अर्जुन ने इस दिव्य ज्ञान का अनुसरण करके अपने अज्ञान के आवरण को दूर किया था, उसी तरह आज हमें भी इस दिव्य ज्ञान का अनुसरण करके अपने जीवन में पड़े अज्ञान रूपी आवरण को दूर करना चाहिए ।

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