प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ।। 45 ।।

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार जो योगी पूर्ण रूप से प्रयत्नशील होकर अथवा पूर्ण मनोयोग से अभ्यास करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर अनेक जन्मों द्वारा बहुत सारी सिद्धियाँ प्राप्त करके, परमगति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।

 

 

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। 46 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  तपस्वी लोगों की अपेक्षा योगी पुरुष श्रेष्ठ होता है और वह योगी ज्ञानियों तथा कर्मकाण्ड करने वालों से भी अधिक श्रेष्ठ होता है । इसलिए हे अर्जुन तू भी योगी बनो ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में योगी को तपस्वियों, ज्ञानियों व कर्मकाण्ड करने वालों से अधिक श्रेष्ठ बताया गया है ।

 

इसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है कि इनमें से ( तपस्वी, ज्ञानी व योगी में ) कौन सबसे श्रेष्ठ होता है ? जिसका उत्तर है- योगी सबसे श्रेष्ठ होता है ।

 

 

 सर्वश्रेष्ठ योगी के लक्षण

 

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।। 47 ।।

 

 

व्याख्या :-  उन सभी योगियों में भी जो मुझे अपने आत्मा में धारण करते हुए, श्रद्धापूर्वक मेरा भजन अथवा स्मरण करता है, मेरे मतानुसार वही सर्वश्रेष्ठ योगी है ।

 

 

 

छटा अध्याय ( आत्मसंयोगयोग ) पूर्ण हुआ ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    छठे अध्याय की समाप्ति पर आपको हृदय से बहुत बहुत आभार। आप ऐसे ही निरंतर हम सभी को गीतामृत का पान कराते रहें।

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