सत्रहवां अध्याय ( श्रद्धात्रय विभागयोग )   इस पूरे अध्याय में श्रद्धा, आहार, यज्ञ, तप व दान के तीन – तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । इसलिए इस अध्याय का नाम श्रद्धात्रय रखा गया है । जिसमें श्रद्धा के साथ- साथ अन्य अंगों के भी तीन- तीन प्रकार बताये गए हैं । इसमें

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [1-2]

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।। 3 ।।     व्याख्या :-  हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व स्वरूप अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप के अनुसार ही होती है । प्रत्येक मनुष्य श्रद्धा से युक्त होता है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह ठीक वैसा

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [3-6]

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ।। 7 ।।     व्याख्या :-  जिस प्रकार सभी मनुष्यों को अपनी अलग – अलग रुचि के अनुसार तीन प्रकार का आहार प्रिय होता है, उसी प्रकार यज्ञ, तप तथा दान भी तीन- तीन प्रकार के भेद वाले होते हैं । अब इनके

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [7-10]

सात्त्विक यज्ञ   अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।। 11 ।।     व्याख्या :-  जो यज्ञ फल की इच्छा से रहित शास्त्र विधि के अनुसार है, कर्तव्य भावना और एकाग्र मन के साथ किया गया है, वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है ।       विशेष :- फल की

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [11-13]

कायिक ( शरीर से सम्बंधित ) तप   देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। 14 ।।     व्याख्या :-  देवताओं, ब्राह्मणों, गुरुजनों और विद्वानों की पूजा, शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा से युक्त होकर किए जाने वाले तप शारीरिक तप कहलाते हैं ।     वाचिक ( वाणी से सम्बंधित )

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [14-16]

सात्त्विक तप = श्रद्धा व फलासक्ति रहित   श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।। 17 ।।       व्याख्या :-  ऊपर वर्णित शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपों को जब योगयुक्त पुरुषों द्वारा फल की इच्छा से रहित व परम श्रद्धा से युक्त होकर किया जाता है, तब वह सात्त्विक तप

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [17-19]

सात्त्विक दान = योग्य व्यक्ति, समय व स्थान पर कर्तव्य भावना से   दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ।। 20 ।।     व्याख्या :-  जो दान उपयुक्त देश ( स्थान ), काल ( समय ) और पात्र ( योग्य व्यक्ति ) को बिना उपकार की भावना के

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [20-22]