सात्त्विक तप = श्रद्धा व फलासक्ति रहित
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।। 17 ।।
व्याख्या :- ऊपर वर्णित शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपों को जब योगयुक्त पुरुषों द्वारा फल की इच्छा से रहित व परम श्रद्धा से युक्त होकर किया जाता है, तब वह सात्त्विक तप कहलाता है ।
विशेष :-
- गीता में सात्त्विक तप किसे कहा गया है ? उत्तर है – परम श्रद्धा के साथ बिना फल की इच्छा के किए जाने वाले तप को सात्त्विक तप कहते हैं ।
राजसिक तप = मान- सम्मान, पूजा व दिखावटी
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।। 18 ।।
व्याख्या :- जो तप अपने सत्कार ( सेवा ), मान ( सम्मान ), पूजा और दम्भपूर्वक ( झूठे दिखावे के लिए ) किया जाता है, वह चंचल और स्थिर न रहने वाला ( अस्थिर ) राजसिक तप कहलाता है ।
विशेष :-
- कौन सा तप चंचल और अस्थिर होता है ? उत्तर है – राजसिक तप में ।
तामसिक तप = मूर्खता, हठ व कष्टपूर्ण
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।। 19 ।।
व्याख्या :- जो तप मूर्खता और हठपूर्वक तरीके से स्वयं व दूसरों को कष्ट अथवा पीड़ा देकर या देने की भावना से किया जाता है, वह तामसिक तप कहलाता है ।
विशेष :-
- तामसिक तप किस उद्देश्य से किया जाता है ? उत्तर है – मूर्खतापूर्ण तरीके से स्वयं व दूसरों को पीड़ा अथवा कष्ट देने के उद्देश्य से ।