सत् = सत्य ( सर्वहितकारी )

 

सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।। 26 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  सत् शब्द का प्रयोग साधुभाव अर्थात् सबकी भलाई व सत्य के रूप में किया जाता है तथा सभी उत्तम अथवा श्रेष्ठ कार्यों के लिए भी सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है ।

 

 

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ।। 27 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  यज्ञ, तप, व दान में स्थिरता रखने को भी सत् कहते हैं और यज्ञ, तप, व दान आदि द्वारा जो भी कर्म किए जाते हैं, उन्हें भी सत् अर्थात् सत्य ही कहते हैं ।

 

 

 

अश्रद्धा से किया गया यज्ञ, तप व दान = असत् ( असत्य )

 

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।। 28 ।।

 

 

 

व्याख्या :- हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ, दिया गया दान व किया गया तप व अन्य जो भी कुछ बिना श्रद्धा के किया गया कर्म है, वह अब असत् अर्थात् असत्य है । अतः बिना श्रद्धा के किए गए कर्म न तो इस लोक में कल्याणकारी होते हैं और न ही दूसरे लोक अथवा परलोक में ।

 

 

सत्रहवां अध्याय ( श्रद्धात्रय विभागयोग ) पूर्ण हुआ ।

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