अर्जुन उवाच


अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।। 37 ।।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।। 38 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अर्जुन पूछता है- हे कृष्ण ! जिस साधक में योग के प्रति श्रद्धा तो है, लेकिन उसकी साधना में क्रियाशीलता नहीं है अर्थात् जिसका प्रयास शिथिल हो, इस प्रकार योग साधना से विचलित ( भटका ) हुआ साधक अन्त में किस गति को प्राप्त होता है अर्थात् अन्त में वह साधक को किसको प्राप्त होता है ?

 

हे महाबाहो श्रीकृष्ण ! कहीं वह योगमार्ग से विचलित हुआ साधक ब्रह्म को प्राप्त करने व सांसारिक मार्ग दोनों ओर से भटक कर, छिन्न- भिन्न बादलों ( फटे हुए बादल ) की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?

 

 

 

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।। 39 ।।

 

 

व्याख्या :- हे कृष्ण ! मेरे इस सन्देह अथवा भ्रम को आप ही पूर्ण रूप से दूर कर सकते हो, आपके अतिरिक्त अन्य किसी में भी इतना सामर्थ्य नहीं है, जो मेरे इस सन्देह को दूर कर सके अर्थात् आपके समक्ष ( जैसा ) मुझे कोई अन्य ऐसा नहीं मिलेगा जो मेरे इस सन्देह को दूर कर सके ।

 

 

श्रीभगवानुवाच


पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।। 40 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पार्थ ! एक बार इस योगविद्या का आचरण करते हुए जो पुरुष योगमार्ग पर चल पड़ता है, उसका दोनों ही लोकों में ( इस लोक व परलोक ) कभी विनाश नहीं होता अर्थात् वह कभी नष्ट नहीं होता और हे तात ! ( अर्जुन ) न ही कल्याणकारी कार्य करने वाले उस पुरुष की कभी दुर्गति ( दुर्दशा या बुरी दशा ) होती है ।

 

 

 

विशेष :-  योगमार्ग का अनुसरण करने वाले किसी भी पुरुष का इस लोक व परलोक में भी विनाश नहीं होता है और न ही उस कल्याणकारी कार्य करने वाले की कभी बुरी दशा होती है ।

 

परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि कल्याणकारी कर्म करने वाला, योगमार्ग से भ्रष्ट अर्थात् भटका हुआ या विचलित हुआ पुरुष क्या लोक व परलोक में विनाश को प्राप्त होता है ? जिसका उत्तर है- नहीं ।

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