जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। 7 ।।

 

 

व्याख्या :-  जिसने अपनी आत्मा को जीत कर परम शान्ति को प्राप्त कर लिया है, वह योगी शीत- उष्ण ( सर्दी- गर्मी ), सुख- दुःख व मान – अपमान आदि द्वन्द्वों में भी स्वयं को समाहित अर्थात् अपने चित्त को समभाव की अवस्था में रखता है ।

 

 

 

विशेष :-  जो योगी आत्मा को जीतकर शान्ति प्राप्त कर लेता है, वह सर्दी- गर्मी, सुख- दुःख व मान- अपमान आदि सभी परिस्थितियों में अपने आप को एक समान अवस्था में बनाए रखता है, और कभी भी विचलित नहीं होता अर्थात् इन द्वन्द्वों का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

 

 

योगयुक्त पुरुष अथवा योगी के लक्षण

 

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ।। 8 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो ज्ञान व विज्ञान से तृप्त अर्थात् पूर्ण है, जिसका मन विकार रहित हो, जिसने अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण पा लिया हो, जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना आदि सभी पदार्थ एक समान हैं अर्थात् जिसकी किसी भी पदार्थ से कोई आसक्ति नहीं है, ऐसा पुरुष ही योगयुक्त अथवा सच्चा योगी कहलाता है ।

 

 

समबुद्धि

 

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।। 9 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करने योग्य, सगे- सम्बन्धियों तथा अच्छे व बुरे लोगों के प्रति समबुद्धि अर्थात् समभाव रखता है, वही मनुष्य विशेष अथवा श्रेष्ठ होता है ।

 

 

विशेष :-  ऊपर श्लोक में वर्णित शब्दों का सरल रूप इस प्रकार है :-

 

सुहृद् –  बिना किसी स्वार्थ के सभी लोगों का हित अर्थात् भला चाहने वाला ।

 

मित्र –  केवल अपना हित चाहने वालों का ही हित चाहने वाला ।

 

उदासीन –  सभी के प्रति तटस्थ अर्थात् पक्षपात रहित होना ।

 

मध्यस्थ – दो लोगों के बीच में आपसी सुलह अथवा तालमेल बनाने वाला ।

 

द्वेष्य –  जो द्वेष अर्थात् नफरत करने के लायक हैं ।

 

बन्धु –  सगे – सम्बन्धी अर्थात् परिवार के लोग ।

 

साधु –  धार्मिक अथवा अच्छे लोग ।

 

पापी –  दुष्ट अथवा बुरे लोग ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    आपका हृदय से परम आभार प्रेषित करता हूं।

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