छठा अध्याय ( आत्मसंयम योग )

इस अध्याय में योग में सहायता प्रदान करने वाले कारकों का वर्णन करते हुए कहा है कि मनुष्य स्वयं ही अपनी आत्मा का मित्र व शत्रु होता है । व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहिए । इसके लिए उसे अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख करना आवश्यक है । इसी के माध्यम से व्यक्ति अपनी आत्मा को अवसादग्रस्त होने से रोक सकता है । आसन का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है ।

पहले आसन के लिए उपयुक्त स्थान को बताते हुए कहा है कि ‘शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:’ योग का अभ्यास करने वाले साधक को शुद्ध अर्थात् साफ सुथरी जगह पर अपना आसन लगाना चाहिए । जो स्थान न तो अधिक ऊँचा हो और न ही अधिक नीचा हो अर्थात् समतल भूमि पर पहले दर्भ, फिर मृग ( हिरण ) की छाल और उसके बाद उसके ऊपर वस्त्र बिछाकर मन की एकाग्रता के लिए अभ्यास करना चाहिए । आगे आसन को करने के लिए अन्य दिशा निर्देश भी बताए गए हैं ।

इसके बाद योग की सिद्धि व असिद्धि के लक्षणों का भी वर्णन किया है । पहले उन लक्षणों का वर्णन किया है जो योग की सिद्धि में बाधा पहुँचाते हैं । जिनका योग सिद्ध नहीं होता उनके लिए एक प्रमुख श्लोक कहा गया है ‘न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन’  अर्थात् यह योग न तो ज्यादा खाने वाले का सिद्ध होता है, न ही कम खाने वाले का और न ही यह ज्यादा सोने वाले का सिद्ध होता है और न ही ज्यादा जागने वाले व्यक्ति का । इस श्लोक के साथ ही श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि यह योग किस प्रकार का व्यवहार करने से सिद्ध होता है । इसके लिए जो श्लोक प्रयोग किया गया है । उसे भी योग की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है । ‘युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टयस्य कर्मसु’ अर्थात् जिस व्यक्ति का आहार और विहार नियमित होता है, जिसकी कर्म के प्रति चेष्टा संयमित है, जो समय पर सोता व जागता है । केवल उसी व्यक्ति का योग सिद्ध होता है । जिससे उसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है ।

इसके बाद ध्यान के लिए भी उपयुक्त दिशा- निर्देश दिए गए हैं साथ ही मन की चंचलता को स्वीकार करते हुए श्रीकृष्ण उसको नियंत्रण में करने के लिए बहुत ही प्रसिद्ध विधि ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते’ अर्थात् मन को नियंत्रित करने के लिए बार- बार अभ्यास और वैराग्य की साधना करने का उपदेश देते हैं । मन को नियंत्रित करने के बाद ही योगी ध्यान में सफलता प्राप्त कर सकता है ।

इस अध्याय में कुल सैतालीस ( 47 ) श्लोकों का उपदेश दिया गया है ।

 

 

श्रीभगवानुवाच


अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।। 1 ।।

 

 

व्याख्या :- जो व्यक्ति कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके, कर्म को अनासक्त भाव अर्थात् निष्काम भाव से करता है, वास्तव में वही सन्यासी और योगी होता है, न कि केवल अग्निहोत्र और कर्म का त्याग करने वाला ।

 

 

 

विशेष :-  उपर्युक्त श्लोक में निष्काम कर्म अर्थात् बिना फल की इच्छा के कर्म करने वाले को ही सच्चा सन्यासी और योगी कहा गया है । अग्निहोत्र अर्थात् हवन व कर्तव्य कर्म का त्याग करने वाले व्यक्ति को योगी नहीं माना है ।

 

 

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ।। 2 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे पाण्डव ! जिसे सन्यास कहा गया है, तुम उसी को कर्मयोग समझो । जब तक सभी संकल्पों अर्थात् कामनाओं का पूर्ण रूप से त्याग नहीं हो जाता, तब तक कोई भी साधक योगी नहीं बन सकता अर्थात् बिना कर्मफल की आसक्ति का त्याग किये, कोई भी साधक योगी नहीं बन सकता । योगी बनने के लिए सभी इच्छाओं अथवा कामनाओं का त्याग करना परमावश्यक है ।

 

 

 

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।। 3 ।।

 

 

व्याख्या :-  योग मार्ग में आरूढ़ ( प्रतिबद्ध अथवा संकल्पित ) योगी के लिए कर्म ( निष्काम कर्म ) को कारण अथवा साधन के रूप में माना गया है । योग में आरूढ़ साधक के लिए सभी कामनाओं का त्याग कर देना ही उसके योगी बनने का कारण बनता है ।

 

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में कर्म को योगमार्ग में साधन के रूप में माना गया है । किसी यात्रा को पूरा करने के लिए जिस भी संसाधन का प्रयोग किया जाता है, उसे हम साधन कहते हैं, ठीक उसी प्रकार योगमार्ग में आगे बढ़ने का इच्छुक साधक जिस भी विधि का प्रयोग करके योगमार्ग में आगे बढ़ता है, उसे योगमार्ग का साधन कहा जाता हैं । योगमार्ग में आरूढ़ साधक के लिए कर्म ( निष्काम कर्मयोग ) ही एकमात्र साधन होता है ।

 

हम एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए जिन संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधन कहा जाता है । जैसे- साईकिल, बस, कार, रेलगाड़ी या हवाई जहाज आदि । प्रत्येक व्यक्ति अपनी यात्रा को सुगम बनाने के लिए इन सभी संसाधनों को साधन के रूप में प्रयोग करता है, उसी प्रकार एक योगी निष्काम कर्मयोग को अपनी योग यात्रा के लिए साधन के रूप में प्रयोग करता है । इस साधन ( निष्काम कर्मयोग ) को ही उसकी साधना की सफलता का कारण कहा जाता है ।

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