ध्यानयोग की विधि
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।। 10 ।।
व्याख्या :- योगी पुरुष द्वारा एकान्त स्थान में बैठकर मन और इन्द्रियों को अपने वश में करना चाहिए और अनावश्यक विचार व वस्तुओं को त्यागकर अपने चित्त को आत्मा में लगाते हुए निरन्तर उसका ध्यान करना चाहिए ।
योगी का ध्यान करने का स्थान
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। 11 ।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।। 12 ।।
व्याख्या :- योगी को अपना आसन ऐसे शुद्ध अर्थात् पवित्र स्थान पर लगाना चाहिए, जो भूमि अर्थात् जमीन से न तो अधिक नीचा हो और न ही अधिक ऊँचा हो अर्थात् समतल भूमि पर हो, वहाँ पहले दर्भ ( कुशा ), फिर मृग की छाल और फिर वस्त्र बिछाये ।
अब उस आसन पर मन को एकाग्र करके बैठे और अपने चित्त व इन्द्रियों की सभी क्रियाओं अथवा विषयों को रोककर, अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे ।
विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि योगी को ध्यान के लिए अपना आसन कैसे स्थान पर बिछाना चाहिए ? जिसका उत्तर है – समतल स्थान पर । आसन को बिछाते हुए क्रमशः किन- किन वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए ? जिसका उत्तर है – पहले दर्भ ( कुशा ), फिर मृग की छाल और फिर वस्त्र बिछाना चाहिए ।
ॐ गुरुदेव!
योगियों के आसन की अति उत्तम व्याख्या।
आपका हृदय से परम आभार।
Guru ji nice explain about dhayana.