विषयों व कर्मफल की आसक्ति का त्याग = योग सिद्धि
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।। 4 ।।
व्याख्या :- जब साधक इन्द्रियों के विषयों व कर्मफल की आसक्ति का त्याग कर देता है, तब वह सभी कामनाओं अथवा इच्छाओं का त्याग करने वाला साधक योगारूढ़ अर्थात् योगी कहलाता है ।
विशेष :- अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर, कर्मफल की आसक्ति का त्याग करने वाला व अपनी सभी इच्छाओं को त्याग करने वाला साधक ही योगी कहलाता है । जब तक कोई साधक अपनी इन्द्रियों को विषयों से विमुख करके, कर्मफल में अनासक्त होकर, अपनी सभी इच्छाओं का त्याग नहीं कर देता है, तब तक उसे योगी नहीं कहा जा सकता । इसलिए योगमार्ग में आरूढ़ होने के लिए साधक को प्रत्याहार, कर्मफल में आसक्ति व सभी कामनाओं का त्याग करना पड़ेगा, तभी कोई साधक सच्चे अर्थों में योगी बन सकता है ।
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। 5 ।।
व्याख्या :- योगी साधक को स्वयं ही अपनी आत्मा का उद्धार अथवा उत्थान करते हुए, उसे कभी भी अवसादग्रस्त नहीं होने देना चाहिए । मनुष्य अपनी आत्मा अथवा अपना स्वयं ही मित्र और स्वयं ही शत्रु होता है । अतः योगी साधक को अपने उत्थान के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु होता है –
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। 6 ।।
व्याख्या :- जिस मनुष्य ने अपने मन, इन्द्रियों व आत्मा को अपने वश अर्थात् नियंत्रण में कर लिया है, वह स्वयं ही अपना मित्र होता है और जो अपने मन, इन्द्रियों व आत्मा को अपने नियंत्रण में नहीं कर पाता, वह स्वयं के साथ शत्रु की तरह ही व्यवहार करता है अर्थात् वह स्वयं ही अपना शत्रु अथवा दुश्मन होता है ।
Guru ji nice explain about yoga siddi short way.
ॐ गुरुदेव!
बहुत सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है।
आपको हृदय से परम आभार प्रेषित करता हूं।