मातङ्गिनी मुद्रा विधि व फल वर्णन
कण्ठमग्ने जले स्थित्वा नासाभ्यां जलमाहरेत् ।
मुखान्निर्गमयेत् पश्चात् पुनर्वक्त्रेण चाहरेत् ।। 88 ।।
नासाभ्यां रेचयेत् पश्चात् कुर्यादेवं पुनः पुनः ।
मातङ्गिनी परा मुद्रा जरामृत्युविनाशिनी ।। 89 ।।
विरले निर्जने देशे स्थित्वा चैकाग्रमानस: ।
कुर्यान्मातङ्गिनीं मुद्रां मातङ्ग इव जायते ।। 90 ।।
यत्र यत्र स्थितोयोगी सुख मत्यन्तमश्नुते ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साधयेन्मुद्रिकां पराम् ।। 91 ।।
भावार्थ :- इतने गहरे पानी में खड़े होना चाहिए जिससे कि पानी कण्ठ अर्थात् गले तक आ जाए । इसके बाद दोनों नासिका छिद्रों से पानी को पीकर उसे मुहँ द्वारा बाहर निकाल दें । इसके बाद मुहँ द्वारा पानी पीकर उसे नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा बाहर निकाल देना चाहिए । यह मातङ्गिनी मुद्रा कहलाती है । इस श्रेष्ठ मुद्रा का बार- बार अभ्यास करने से यह बुढ़ापे व मृत्यु को नष्ट करती है ।
इस मुद्रा का अभ्यास ऐसे एकान्त स्थान पर करना चाहिए जहाँ पर कोई अन्य व्यक्ति न हो । इस मुद्रा को करने से साधक भी हाथी के समान अधिक बल वाला हो जाता है ।
इस मुद्रा का अभ्यास करने वाला योगी जहाँ पर भी निवास करता है अर्थात् वह जहाँ पर भी रहता है । वहीं पर वह अत्यंत सुख को ही भोगता है । इसलिए साधक को पूरे मनोयोग के साथ इस श्रेष्ठ मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए ।
विशेष :- इस मुद्रा के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक प्रश्न है जिनको परीक्षा में पूछा जा सकता है । जैसे – मातङ्गी मुद्रा का सम्बंध किस प्राणी से है ? उत्तर है हाथी से । कौन सी षट्कर्म क्रिया की विधि मातङ्गी मुद्रा से मिलती जुलती है ? उत्तर है व्युत्क्रम कपालभाति । इस मुद्रा को करने से किसके समान बल की प्राप्ति होती है ? उत्तर है हाथी के समान बल की ।
भुजङ्गिनी मुद्रा विधि वर्णन
वक्त्रं किञ्चित् सुप्रसार्य चानिलं गलया पिबेत् ।
सा भवेद् भुजगी मुद्रा जरामृत्युविनाशिनी ।। 92 ।।
यावच्च उदरे रोगा अजीर्णादि विशेषतः ।
तत् सर्वं नाशयेदाशु यत्र मुद्रा भुजङ्गिनी ।। 93 ।।
भावार्थ :- अपने मुहँ को थोड़ा सा खोलकर गले से वायु को पीना चाहिए अर्थात् वायु को शरीर के अन्दर लेकर जाएं । यह भुजंगिनी मुद्रा कहलाती है । इससे बुढ़ापा व मृत्यु दोनों का ही नाश होता है ।
इस मुद्रा के प्रभाव से अजीर्ण ( अपच ) आदि जो प्रमुख रोग होते हैं । वह सभी के सभी नष्ट हो जाते हैं ।
विशेष :- भुजङ्गिनी मुद्रा का सम्बंध साँप से होता है । जिस प्रकार साँप अपने मुहँ को थोड़ा सा खोलकर गले से श्वास लेता है । ठीक उसी प्रकार इस मुद्रा में भी साधक मुहँ को खोलकर गले से श्वास ग्रहण करता है । इसलिए इसे भुजङ्गिनी मुद्रा कहते हैं । यह सभी अजीर्ण रोगों का नाश करती है ।
ॐ गुरुदेव!
आपका हृदय से आभार।
Guru ji nice explain.