विपरीतकरणी मुद्रा विधि

 

नाभिमूलेवसेत् सूर्यस्तालुमूले च चन्द्रमा: ।

अमृतं ग्रसते सूर्यस्ततो मृत्युवशो नर: ।। 33 ।।

ऊर्ध्वं च योजयेत् सूर्यञ्चन्द्रञ्च अध आनयेत् ।

विपरीतकरणी मुद्रासर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 34 ।।

भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मं समाहित: ।

उर्ध्वपाद: स्थिरो भूत्वा विपरीतकरी मता ।। 35 ।।

 

भावार्थ :- मनुष्य के शरीर में सूर्य नाभि के मूलभाग अर्थात् नाभि के बीच में निवास करता है और चन्द्रमा तालु प्रदेश अर्थात् गले में रहता है । चन्द्रमा से स्त्रावित ( बहने ) होने वाले रस का सूर्य द्वारा ग्रहण कर लेने से ही साधक की मृत्यु होती है ।

अपने सूर्य ( नाभि प्रदेश  ) को ऊपर की ओर व चन्द्रमा ( तालु प्रदेश ) को ( नीचे की ओर ले जाने को ही विपरीतकरणी मुद्रा कहा गया है । जो सभी तन्त्र के ग्रन्थों में गोपनीय अर्थात् जिसे तन्त्र विद्या के सभी ग्रन्थों में गुप्त रखने की बात कही गई है ।

इसके लिए साधक को एकाग्र होकर अपने सिर को दोनों हाथों के बीच में जमीन पर रखकर पैरों को ऊपर आकाश की ओर करके शरीर को उसी अवस्था में स्थिर कर देने को ही विपरीतकरणी मुद्रा माना गया है ।

 

 

विपरीतकरणी मुद्रा का फल

 

मुद्रां च साधयेन्नित्यं जरां मृत्युञ्च नाशयेत् ।

स सिद्ध: सर्वलोकेषु प्रलयेऽपि न सीदति ।। 36 ।।

 

भावार्थ :-  जो योगी विपरीत करणी मुद्रा की साधना को प्रतिदिन करता है । वह इसमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जिससे वह सभी लोकों अर्थात् पूरे विश्व में सिद्ध पुरुष कहलाता है । उसके लिए बुढ़ापा और मृत्यु भी नष्ट हो जाते हैं । वह प्रलय अर्थात् सृष्टि के विनाश के समय भी दुःख का अनुभव नहीं करता ।

 

 

विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से विपरीतकरणी मुद्रा के सम्बंध में निम्न प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे- विपरीतकरणी मुद्रा किस आसन से सम्बंधित मानी जाती है ? अथवा विपरीतकरणी मुद्रा में किस आसन की विधि अपनाई जाती है ? जिसका उत्तर है सर्वांगासन । शरीर में सूर्य का स्थान कहाँ पर है ? जिसका उत्तर है नाभि प्रदेश में । शरीर में चन्द्रमा का स्थान कहाँ पर स्थित है ? जिसका उत्तर है तालु प्रदेश में । शरीर में बहने वाले अमृत को किस मुद्रा द्वारा सुरक्षित रखा जा सकता है ? जिसका उत्तर है विपरीतकरणी मुद्रा द्वारा ।

Related Posts

February 4, 2019

मातङ्गिनी मुद्रा विधि व फल वर्णन   कण्ठमग्ने जले स्थित्वा नासाभ्यां जलमाहरेत् । मुखान्निर्गमयेत् ...

Read More

January 31, 2019

आकाशीय धारणा मुद्रा विधि वर्णन   यत् सिन्धौ वरशुद्धवारिसदृशं व्योमं परं भासितं तत्त्वं देवसदाशिवेन ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. प्रणाम योगीजी। आपके सभी लेख बहुत ही अच्छे लगते हैं। ज्ञानवर्धक एवम् अनुभवसिद्ध होने की वजह से प्रामाणिक हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। विपरीतकर्णी के संबंध में मेरी धारणा है कि इसका आसन शीर्षासन होना चाहिए। जैसे कि विधि में बताया गया है कि सिर को दोनों हाथों के बीच जमीन पर स्थिर करके पैर ऊपर आसमान की तरफ स्थिर करें। सर्वांगासन में कमर को दोनों हाथों से सहारा दे कर कंधों के बल पर शरीर को ऊपर उठाकर रखते है तो सिर दोनों हाथों के बीच नहीं आ सकता। अत: कृपया इस बारे में मार्गदर्शन करें। धन्यवाद।

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}