खेचरी मुद्रा विधि

 

जिह्वाधो नाडीं सञ्छिन्नां रसनां चालयेत् सदा ।

दोहेयेन्नवनीतेन लौहयन्त्रेण कर्षयेत् ।। 25 ।।

एवं नित्यं समभ्यासाल्लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् ।

यावद् गच्छेद् भ्रुवोर्मध्ये तदागच्छति खेचरी ।। 26 ।।

रसनां तालुमध्ये तु शनै: शनै: प्रवेशयेत् ।

कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।

भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 27 ।।

 

भावार्थ :- जीभ के नीचे स्थित नाड़ी ( जो जीभ गले से जोड़ कर रखती है ) को हल्का सा काटकर सदा उसको चलाना चाहिए अर्थात् जीभ को पकड़कर उसे आगे व पीछे की ओर खींचना चाहिए । उसके बाद जीभ के ऊपर मक्खन लगाकर उसका दोहन ( जिस प्रकार गाय अथवा भैंस का दूध निकालते हुए उनके स्तनों को खींचते हैं ) करना चाहिए और फिर लोहे की चिमटी से जीभ को पकड़कर उसे आगे की तरफ खींचे । इस प्रकार का अभ्यास प्रतिदिन करने से साधक की जीभ लम्बी हो जाती है और वह दोनों भोहों ( आज्ञा चक्र ) तक पहुँच जाती है । जैसे ही साधक की जीभ दोनों भौहों के बीच तक पहुँच जाती है वैसे ही उसकी खेचरी सिद्ध होने लगती है । इसके बाद जीभ को धीरे- धीरे उलटते हुए ( उल्टी करके ) तालु प्रदेश ( गले के बीच में ) के पीछे स्थित छिद्र में उसको प्रविष्ट ( उसका प्रवेश ) करवाएं और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करें अर्थात् दोनों भौहों के बीच में देखें । इसे खेचरी मुद्रा कहा जाता है ।

 

 

विशेष :-  खेचरी मुद्रा सभी मुद्राओं में अपना प्रमुख स्थान रखती है । इसे करने के लिए साधक को काफी समय व धैर्य का पालन करना पड़ता है । साथ ही इसे किसी अनुभवी योगी से ही सीखा जा सकता है । खेचरी मुद्रा करते हुए जब जीभ का दोहन किया जाता है तब साधक को ताजे मक्खन का प्रयोग करना अनिवार्य होता है साथ ही उसे लोहे की किसी चिमटी से खींचना पड़ता है । क्योंकि मक्खन लगने के बाद जीभ को हाथ से नहीं खींचा जा सकता । यह कुछ उपयोगी जानकारी थी जिसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है ।

 

 

खेचरी मुद्रा का फल

 

न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते ।

न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेह: स जायते ।। 28 ।।

नाग्निना दह्यते गात्रं न शोषयति मारुत: ।

न देहं क्लेदयन्त्यापो दंशयेन्न भुजङ्गम: ।। 29 ।।

लावण्यं च भवेद् गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम् ।

कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात् ।। 30 ।।

नाना रस समुद् भूतमानन्दं च दिने दिने ।

आदौ लवणक्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम् ।। 31 ।।

नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च ।

द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम् ।। 32 ।।

 

भावार्थ :- जो साधक खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है उसे न तो कभी मूर्च्छा ( अचेतन अवस्था ) आती है, न ही उसे भूख व प्यास परेशान करती है, न उसे कभी आलस्य आता है, न ही उसे कभी कोई रोग होता है, न ही वह कभी बूढ़ा होता है और न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । बल्कि उसका शरीर देवताओं के समान कान्तिमान हो जाता है ।

उसके शरीर को अग्नि जला नहीं सकती, वायु सुखा नहीं सकती, पानी उसे गीला नहीं कर पाता है और न ही साँप के काटने ( डसने ) का उस पर कोई प्रभाव होता है ।

उसका शरीर सदा कान्तिमान अर्थात् तेजयुक्त होता है । उसे निश्चित रूप से समाधि की प्राप्ति होती है । कपाल और मुहँ का संयोग अर्थात् कपाल व मुख में एकरूपता होने से उसकी जीभ को अनेक या सभी प्रकार के रसों की प्राप्ति हो जाती है ।

उसे दिन – प्रतिदिन अनेक प्रकार के रसों का अनुभव होता रहता है । इस क्रम में सबसे पहले लवण ( नमकीन खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) और क्षारीय ( जामुन, गाजर, नींबू आदि पदार्थों जैसा स्वाद ) उसके बाद तिक्त ( तीखे जैसे- मिर्च व मसालों जैसा स्वाद ) और कषाय ( कड़वे जैसे- करेला आदि खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) रसों का अनुभव होता है ।

इनके बाद साधक को ताजे मक्खन, घी, दूध, दही, तक्र ( लस्सी ), शहद, अंगूरों का रस व उसके बाद अन्त में अमृत जैसे रसों का अनुभव अथवा उत्पत्ति होती है ।

 

 

विशेष :-  खेचरी मुद्रा के लाभों की सूची अत्यंत लम्बी है । इसके अलावा इसे मुख्य मुद्राओं में से एक माना गया है । अतः सभी विद्यार्थी इन सभी श्लोकों को ध्यानपूर्वक पढ़ें । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यंत उपयोगी हैं ।

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