स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार: ।। 54 ।।

शब्दार्थ :- स्वविषय ( अपने- अपने विषयों अर्थात कार्यों के साथ ) असम्प्रयोगे ( जुड़ाव या सम्बन्ध न होने से ) चित्तस्य- स्वरूपानुकार ( चित्त के वास्तविक स्वरूप के ) इव ( समान या अनुसार ) इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों का भी वैसा ही हो जाना ) प्रत्याहार: ( प्रत्याहार कहलाता है । )

सूत्रार्थ :- जब सभी इन्द्रियों का अपने – अपने कार्यों के साथ सम्बन्ध न होने से वह चित्त के वास्तविक स्वरूप के अनुसार उसी ( चित्त ) का अनुसरण करती हैं । तो उसे प्रत्याहार की स्थिति कहते हैं ।

व्याख्या :- इस सूत्र में प्रत्याहार के स्वरूप को बताया गया है ।

Yogdarshan mein pratyahar – sadhnapad sutra 54

प्रत्याहार को समझने के लिए पहले हमें चित्त के स्वरूप व इन्द्रियों के कार्यों या विषयों को समझना आवश्यक है ।

हम पहले समाधिपाद के दूसरे सूत्र में पढ़ चुकें है कि चित्त का स्वरूप कैसा है ? उसकी कितनी अवस्थाएँ होती है ? आदि- आदि । उसमें निरुद्ध अवस्था को चित्त की वास्तविक अवस्था बताया गया है । इस अवस्था में हमारा चित्त सत्त्वगुण प्रधान होता है । जिसमें चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है । यह अपर- वैराग्य की स्थिति या असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति होती है । यही चित्त का वास्तविक स्वरूप होता है ।

अब हम इन्द्रियों और उनके विषयों को समझते का प्रयास करते हैं । हमारे शरीर में दस (10)  इन्द्रियाँ होती हैं । ग्याहरवां मन होता है । जिसे उभयात्मक इन्द्री कहा है । जो कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों दोनों के साथ मिलकर कार्य करता है ।

यहाँ पर इन्द्रियों का अर्थ केवल ज्ञानेन्द्रियों से लिया गया है कर्मेन्द्रियों से नहीं । अब हम नीचे ज्ञानेन्द्रियों के नाम व उनके कार्यों का वर्णन करेंगें-

  1. श्रोत्र ( कान ) = सुनना ।
  2. त्वचा ( शरीर की ऊपरी सतह या भाग ) = स्पर्श का अनुभव करना ।
  3. नेत्र ( आँख ) = देखना
  4. रसना ( जिह्वा या जीभ ) = स्वाद चखना ।
  5. घ्राण ( नासिका ) = सूँघना ।

इस प्रकार सभी इन्द्रियों का अपना- अपना विषय अर्थात कार्य होता है जिसे वह पूरा करती हैं । जैसे- कान सुनने का कार्य करते हैं, त्वचा स्पर्श का अनुभव करवाती है, आँखे देखने का काम करती हैं, जिह्वा स्वाद को चखने का काम करती है और नासिका गन्ध को सूँघने का काम करती हैं ।

लेकिन जैसे ही योगी साधक अपनी अभी इन्द्रियों को उनके सभी कार्यों या विषयों से विमुख कर देता है । अर्थात उनको अन्तर्मुखी कर देता है तब वह निरुद्ध हुए चित्त के अनुसार ही उसका अनुसरण करना शुरू कर देती हैं । और उनका अपने सभी बाहरी विषयों के साथ सम्बन्ध टूट जाता है । जैसे ही उनका उनके  बाहरी विषयों अर्थात कार्यों से सम्बन्ध टूटता है वैसे ही योगी  प्रत्याहार की अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

प्रत्याहार होने पर सभी इन्द्रियाँ चित्त के निर्देशन में ही रहती हैं । इसको एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं –

जिस प्रकार मधुमक्खियों के छत्ते में एक रानी मक्खी होती है । वह रानी मक्खी जैसा निर्देश या कार्य करती है तो बाकी की अन्य सभी मक्खियाँ भी वैसा ही करती हैं । अर्थात सभी मधु मक्खियाँ रानी मधु मक्खी का अनुसरण करती हैं । ठीक इसी प्रकार इन्द्रियों के अन्तर्मुखी होने से वह इन्द्रियाँ अपने- अपने कार्यों को छोड़कर चित्त के निर्देशन में कार्य करती हैं । चित्त के निरुद्ध होने पर सभी इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं ।

इसे ही प्रत्याहार कहा गया है ।

सामान्य तौर पर इन्द्रियों के अन्तर्मुखी होने को ही प्रत्याहार कहते हैं । यह प्रत्याहार अष्टांग योग के बहिरंग का अन्तिम अंग है । इसके बाद धारणा, ध्यान व समाधि को अन्तरंग में रखा गया है । जिनका वर्णन अगले पाद अर्थात विभूतिपाद में किया जाएगा ।

अब अगले सूत्र में प्रत्याहार के लाभ को बताया गया है ।

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! प्रत्याहार की बहुत ही सुंदर व स्पष्ट व्याख्या आपने बताई है जिससे सूत्र को समझना बहुत ही सरल हो गया है ।। आपको बारम्बार प्रणाम आचार्य जी! धन्यवाद! ओ3म् ?

  2. ॐ गुरुदेव*
    अति सुन्दर व्याख्या ।
    आपकी व्याख्यात्मक शैली का
    कोई जवाब नहीं।
    धन्यवाद्!

  3. Pranam rishivar,
    Pratyahar k bare me bahot saralta se samaj aa gaya

    Bahot bahot Pranam
    Bhavna from vapi Gujrat

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