अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ।। 4 ।।

 

शब्दार्थ :- प्रसुप्त, ( कलेशों की निष्क्रिय या सोई हुए स्थिति ) तनु, ( निर्बल या शान्त स्थिति ) विच्छिन्न, ( जागृत या रुक- रुककर उभरने वाली स्थिति ) उदार, ( कलेशों की तीव्र या प्रभावी स्थिति ) उत्तरेषाम् ( जिनका वर्णन इससे पहले के सूत्र में किया गया है ) क्षेत्रम् , ( उनकी उत्पत्ति का कारण ) अविद्या, ( मिथ्याज्ञान है । )

 

सूत्रार्थ :- इस सूत्र से पहले के सूत्र में अविद्या के बाद के जो क्लेश बताएं हैं । उनकी निष्क्रिय, शान्त, जागृत व तीव्र अवस्था होती है । उन सभी कलेशों की उत्पत्ति का कारण अविद्या अर्थात मिथ्याज्ञान ही है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में अविद्या को ही बाकी के अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश नामक कलेशों की जननी अर्थात इनको जन्म देने वाली माना है । अविद्या ही वह क्लेश है जो बाकी के सभी कलेशों को उत्पन्न करता है । अविद्या का अर्थ है विपरीत, मिथ्या या झूठा ज्ञान । जब तक किसी व्यक्ति को किसी भी पदार्थ की सही जानकारी नहीं होगी तब तक वह उसके यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ पाएगा । इसलिए कहा गया है कि सर्वप्रथम इस अविद्या रूपी जननी का निराकरण करना पड़ेगा । तभी हम बाकी के कलेशों को खत्म कर सकते हैं ।

 

यहाँ पर अविद्या के अतिरिक्त अस्मिता आदि कलेशों की चार अवस्थाएँ या स्थिति बताई हैं । कि यह क्लेश किस – किस अवस्थाओं में रहते हैं । इनकी मुख्य रूप से चार अवस्थाओं का वर्णन किया गया है । जो इस प्रकार हैं –

 

  1. प्रसुप्त
  2. तनु
  3. विच्छिन्न
  4. उदार ।

 

  1. प्रसुप्त :- कलेशों की वह अवस्था जिसमें वह पूरी तरह से सोए हुए हों प्रसुप्त कहलाती है । इस अवस्था में कलेशों का कोई भी प्रभाव हमारे ऊपर नहीं पड़ता । या यों कहें कि इस स्थिति में वह क्लेश किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकते । जैसे कोई सोया हुआ व्यक्ति किसी को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता । ठीक वैसे ही सोए हुए क्लेश हमें किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचा सकते । इस प्रकार कलेशों की यह प्रभावहीन स्थिति होती है । इस अवस्था में उनका हमारे ऊपर किसी तरह का कोई प्रभाव नहीं रहता ।

 

  1. तनु :- कलेशों की वह अवस्था जिसमें वह निर्बल अवस्था में होते हैं तनु कहलाती है । इस स्थिति में भी क्लेश किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं । कलेशों के निर्बल अर्थात बिना ताकत के होने की वजह से वह कुछ नहीं कर पाते हैं । जिस प्रकार बिना सामर्थ्य के हम कोई मेहनत का काम नहीं कर सकते हैं । ठीक उसी प्रकार बिना ताकत के निर्बल अवस्था में पड़े हुए क्लेश भी कुछ नहीं कर पाते हैं । जैसे – एक छोटे बच्चे में किसी प्रकार की कोई वासना नहीं होती । क्योंकि अभी तक उसकी इन्द्रियों में वो बल अर्थात ताकत नहीं आई है जिससे कि वह अपनी वासना को पूर्ण कर सके । इसलिए छोटे बच्चों में वासना नहीं होती । लेकिन जैसे ही वह युवा अवस्था में आते हैं तो उनकी इन्द्रियों में बल आने से उनकी वासना भी प्रबल हो जाती है ।

 

  1. विच्छिन्न :- कलेशों की जागृत अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं । जिसमें कभी उनका प्रभाव बढ़ जाता है और कभी घट जाता है । इस स्थिति में एक क्लेश का प्रभाव बढ़ता है तो उसके विरोधी क्लेश का प्रभाव अपने आप कम हो जाता है । जैसे- यदि राग नामक क्लेश बढ़ा हुआ है तो उस समय द्वेष नामक क्लेश का प्रभाव कम होगा । और यदि द्वेष नामक क्लेश प्रभावी है तो उस समय पर राग नामक क्लेश निष्क्रिय हो जाता है । कलेशों की इस स्थिति को विच्छिन्न कहते हैं ।

 

  1. उदार :- इसमें कलेशों की स्थिति प्रभावी या तीव्र गति वाली होती है । जिसमें वह बिना कुछ सोच – विचार के कुछ भी गलत कार्य कर बैठता है । जैसे – यदि व्यक्ति के अन्दर द्वेष नामक क्लेश उदार अथवा तीव्र अवस्था में होता है तो वह क्रोध में आकर किसी को भी नुकसान पहुँचा सकता है । या फिर राग की भी तीव्र स्थिति में वह आसक्ति अर्थात लगाव के वशीभूत होकर सही या गलत कुछ भी कर सकता है । कलेशों की यह अवस्था सबसे घातक होती है । इस स्थिति में व्यक्ति आवेश में आकर कुछ भी अनहोनी घटना कर सकता है ।

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