उज्जायी प्राणायाम

 

मुखं संयम्य नाडीभ्यामाकृष्य पवनं शनै: ।

यथा लगति कण्ठात्तु हृदयावधि सस्वनम् ।। 51 ।।

 

भावार्थ :- मुख को बन्द करके इड़ा व पिंगला नाडियों ( दोनों नासिकाओं ) से वायु को धीरे- धीरे अन्दर भरें । जब वायु को अन्दर भरें तब गले से लेकर हृदय प्रदेश तक वायु के स्पर्श का अनुभव होना चाहिए ।

 

विशेष :-  इस प्राणवायु के दौरान जब हम श्वास को अन्दर लेते हैं तो अपने गले को थोड़ा सिकोड़ लेते हैं । जिसके कारण हम वायु के स्पर्श का अनुभव कर पाते हैं । तभी हमें उज्जायी प्राणायाम करते हुए एक ध्वनि सुनाई पड़ती है । यह ध्वनि गले के साथ स्पर्श करती हुई वायु की ही होती है ।

 

उज्जायी विधि व लाभ

 

पूर्ववत् कुम्भयेत् प्राणं रेचयेदिडया तत: ।

श्लेष्मदोषहरं कण्ठे देहानलविवर्धनम् ।। 52 ।।

 

भावार्थ :- पूर्व वर्णित प्राणायाम की भाँति अर्थात सूर्यभेदी की तरह ही कुम्भक करते हुए, श्वास को बायीं नासिका से बाहर निकाल देना ही उज्जायी प्राणायाम कहलाता है । इसके अभ्यास से सभी कफ सम्बन्धी, गले सम्बन्धी रोग दूर होते हैं व जठराग्नि प्रदीप्त ( पाचन तंत्र मजबूत )  होती है ।

 

उज्जायी के लाभ

 

नाडी जलोदरा धातु गत दोष विनाशनम् ।

गच्छता तिष्ठता कार्यमुज्जाय्याख्यं तु कुम्भकम् ।। 53 ।।

 

भावार्थ :- इस उज्जायी नामक प्राणायाम के करने से नाड़ियों के दोष, जलोदर अर्थात पेट सम्बन्धी व धातुओं से सम्बंधित रोग नष्ट हो जाते हैं । अतः साधक इस प्राणायाम का अभ्यास चलते- फिरते हुए या स्थिर होकर ( खड़े होकर अथवा बैठकर ) भी कर सकता है ।

 

 

विशेष :- उज्जायी प्राणायाम की यह अलग से विशेषता है कि हम इसका अभ्यास चलते- फिरते या खड़े होकर भी कर सकते हैं । परीक्षा की दृष्टि से भी यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बनता है कि कौन सा ऐसा प्राणायाम है जिसे हम चलते- फिरते हुए या खड़े होकर भी कर सकते हैं ?

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  1. बधाई हो सर, आपके नए क़िताब योगदर्शन प्रकाशित होने जा रहा है…?????

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