भस्त्रिका प्राणायाम से पहले पद्मासन की स्थिति

 

ऊर्वोरूपरि संस्थाप्य शुभे पादतले उभे ।

पद्मासनं भवेदेतत् सर्वपापप्रणाशनम् ।। 59 ।।

 

भावार्थ :- अपने दोनों पैरों के तलवों को दोनों जंघाओं के ऊपर रखकर बैठें । यह सभी प्रकार के पाप कर्मों को नष्ट करने वाला पद्मासन कहलाता है ।

 

विशेष :- भस्त्रिका प्राणायाम को पद्मासन में ही बैठकर करने का निर्देश किया गया है । जबकि अन्य किसीप्राणायाम को करने के लिए किसी आसन विशेष की बात नहीं कही गई है । अतः परीक्षा की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है कि भस्त्रिका प्राणायाम को किस आसन में बैठकर करने का निर्देश दिया गया है ? जिसका उत्तर पद्मासन होगा ।

 

भस्त्रिका प्राणायाम विधि

 

सम्यक् पद्मासनं बद्ध्वा समग्रीवोदरं सुधी: ।

मुखं संयम्य यत्नेन प्राणं घ्राणेन रेचयेत् ।। 60 ।।

यथा लगति हृत्कण्ठे कपालावधि सस्वनम् ।

वेगेन पूरयेच्चापि हृत्पद्मावधि मारुतम् ।

पुनर्विरेचयेत्तद्वत् पूरयेच्च पुनः पुनः ।। 61 ।।

 

भावार्थ :- बुद्धिमान साधक अच्छी प्रकार से पद्मासन लगाकर अपने पेट व गर्दन को बिलकुल सीधा रखते हुए मुख को अच्छी तरह से बन्द करे । और जिस प्रकार से लोहार की धौकनी पूरी तेज गति से चलती रहती है । ठीक उसी प्रकार अपनी नासिका से प्राणवायु को पहले बलपूर्वक बाहर निकाले और फिर उसी प्रकार आवाज करते हुए प्राणवायु को इतना अन्दर तक भरें कि पूरा गला, हृदय प्रदेश व कपाल वायु से भर जाएं । इसी प्रकार प्राणवायु को बार- बार ध्वनि व बलपूर्वक रेचक ( बाहर ) व पूरक ( अन्दर ) करें ।

 

 

यथैव लोहकरेण भस्त्रा वेगेन चाल्येत ।

तथैव स्वशरीरस्थं चालयेत् पवनं धिया ।। 62 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार लोहार की धौकनी पूरी तेज गति से चलती रहती है । ठीक उसी प्रकार से योगी साधक को भी बुद्धियुक्त होकर शरीर में स्थित प्राणवायु को पूरी गति के साथ चलाना चाहिए ।

 

थकान दूर करने का उपाय

 

यदा श्रमो भवेद्देहे तदा सूर्येण पूरयेत् ।

यथोदरं भवेत् पूर्णं पवनेन तथा लघु ।। 63 ।।

 

भावार्थ :- भस्त्रिका प्राणायाम करते हुए जैसे ही साधक को थकान महसूस हो वैसे ही उसे अपनी दायीं नासिका से श्वास को अन्दर भरना चाहिए । जिससे पेट वायु से पूर्ण रूप से भर जाए । ऐसा करने से साधक की थकान मिटती है ।

 

प्राणायाम करते हुए सही अंगुलियों का     प्रयोग

 

धारयेन्नासिकां मध्या तर्जनीभ्यां विना दृढम् ।

विधिवत् कुम्भकं कृत्वा रेचयेदिडयानिलम् ।। 64 ।।

 

भावार्थ :- इसके बाद अपनी नासिका को मध्यमा ( बीच की सबसे बड़ी अंगुली ) व तर्जनी ( सबसे पहली अंगुली ) को छोड़कर शेष बची हुई अनामिका, ( रिंग फिंगर या तीसरी अंगुली ) कनिष्ठिका ( सबसे छोटी अंगुली ) व अंगूठे की सहायता से मजबूती से बन्द करके पहले की तरह ही कुम्भक लगाए । इसके बाद दायीं नासिका को बन्द रखते हुए बायीं नासिका से श्वास को बाहर निकालना चाहिए । यह भस्त्रिका प्राणायाम कहलाता है ।

 

विशेष :- इस श्लोक में इस बात को विशेष रूप से दर्शाया गया है कि हमें प्राणायाम करते हुए कौन सी अंगुली का प्रयोग करना चाहिए और कौन सी का नहीं ? समान्य तौर पर व्यक्ति अपनी सुविधानुसार किसी भी अंगुली का प्रयोग नासिका को बन्द करने के लिए कर लेता है । लेकिन इसकी हठयोग में एक विधि बताई गई है । जिसका वर्णन इसी श्लोक में किया गया है ।

यह परीक्षा की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है कि हठयोग या हठप्रदीपिका के अनुसार प्राणायाम करते समय कौन- कौन सी अंगुलियों का प्रयोग करना चाहिए ? इसके उत्तर के लिए इसी श्लोक की सहायता लेनी चाहिए । इस श्लोक में स्पष्ट रूप से लिखा है कि हमें मध्यमा व तर्जनी अंगुली को छोड़कर बाकी सभी का प्रयोग करना चाहिए । इसका मतलब यह हुआ कि बची हुई अनामिका, ( तीसरी या रिंग फिंगर ) कनिष्ठिका ( सबसे छोटी अंगुली ) व अंगूठे का ही प्रयोग करना चाहिए ।

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