प्राणायाम के तीन प्रमुख अंग
प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकै: ।
सहित: केवलश्चेति कुम्भको द्विविधो मत: ।
यावत् केवलसिद्धि: स्यात् सहितं तावदभ्यसेत् ।। 71 ।।
भावार्थ :- प्राणायाम के तीन मुख्य अंग होते हैं जिनसे प्राणायाम पूर्ण होता है । रेचक, ( श्वास को बाहर निकालना ) पूरक ( श्वास को अन्दर भरना ) व कुम्भक ( श्वास को अन्दर या बाहर कहीं भी रोक कर रखना ) । इसमें कुम्भक के दो प्रकार होते हैं – एक सहित कुम्भक व दूसरा केवल कुम्भक । जब तक साधक को केवल कुम्भक में सिद्धि नहीं मिल जाती तब तक उसे सहित कुम्भक का अभ्यास करते रहना चाहिए ।
विशेष :- इस श्लोक में प्राणायाम के तीन अंगों की चर्चा की गई है । जिनसे प्राणायाम पूरा होता है । बिना रेचक, पूरक व कुम्भक के कोई भी प्राणायाम पूर्ण नहीं हो सकता ।
सहित कुम्भक
रेचक: पूरक: कार्य: स वै सहित कुम्भक: ।
भावार्थ :- जब प्राणायाम को रेचक व पूरक के साथ किया जाता है तब वह सहित कुम्भक कहलाता है ।
विशेष :- सहित कुम्भक में रेचक व पूरक दोनों का ही प्रयोग किया जाता है । तभी वह सहित कुम्भक कहलाता है ।
केवल कुम्भक
रेचकं पूरकं मुक्तवा सुखं यद्वायुधारणम् ।
प्राणायामोऽयमित्युक्त: स वै केवलकुम्भक: ।। 72 ।।
भावार्थ :- रेचक व पूरक के बिना अपने आप प्राणवायु को सुखपूर्वक शरीर के अन्दर धारण करने ( रोकना ) को ही केवल कुम्भक प्राणायाम कहते हैं ।
विशेष :- केवल कुम्भक का अभ्यास रेचक व पूरक के बिना ही किया जाता है ।
केवल कुम्भक की सिद्धि का महत्त्व
कुम्भके केवले सिद्धे रेचपूरक वर्जिते ।
न तस्य दुर्लभं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।। 73 ।।
भावार्थ :- बिना रेचक व पूरक के केवल कुम्भक प्राणायाम के सिद्ध हो जाने पर योगी साधक के लिए इन तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ अर्थात अप्राप्य नहीं रहता । अर्थात तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे वो प्राप्त न कर सकते हों ।
केवल कुम्भक द्वारा राजयोग प्राप्ति
शक्त: केवल कुम्भेन यथेष्टं वायुधारणात् ।
राजयोगपदं चापि लभते नात्र संशय: ।। 74 ।।
भावार्थ :- केवल कुम्भक द्वारा जब साधक पूर्ण सामर्थ्यवान हो जाता है तब वह जब तक चाहे तब तक प्राणवायु को अपने भीतर रोक कर रख सकता है । ऐसा करने से वह राजयोग अर्थात समाधि को भी प्राप्त कर सकता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है ।
केवल कुम्भक के द्वारा कुण्डलिनी जागरण व हठयोग सिद्धि
कुम्भकात् कुण्डलीबोध: कुण्डलीबोधतो भवेत् ।
अनर्गला सुषुम्ना च हठसिद्धिश्च जायते ।। 75 ।।
भावार्थ :- केवल कुम्भक से कुण्डलिनी का जागरण हो जाता है और कुण्डलिनी के जागृत होने से सुषुम्ना नाड़ी के सभी मल रूपी अवरोध भी स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार साधक को हठयोग में सिद्धि की प्राप्ति होती है ।
राजयोग व हठयोग का सम्बन्ध
हठं विना राजयोगो राजयोगं विना हठ: ।
न सिद्धयति ततो युग्ममानिष्पत्ते: समभ्यसेत् ।। 76 ।।
भावार्थ :- हठयोग के बिना राजयोग की व राजयोग के बिना हठयोग की सिद्धि नहीं हो सकती । इसलिए जब तक निष्पत्ति अर्थात समाधि की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक इन दोनों का अभ्यास करते रहना चाहिए ।
विशेष :- इस श्लोक में राजयोग व हठयोग की एक दूसरे पर निर्भरता को दर्शाया गया है । इससे हमें पता चलता है कि यह एक दूसरे पर पूरी तरह से आश्रित हैं ।
कुम्भकप्राणरोधान्ते कुर्याच्चित्तं निराश्रयम् ।
एवमभ्यासयोगेन राजयोगपदं व्रजेत् ।। 77 ।।
भावार्थ :- कुम्भक के द्वारा प्राणवायु को पूरी तरह से रोक लेने के बाद साधक को चाहिए कि वह अपने चित्त को आश्रय रहित बना ले । इस प्रकार के योग का अभ्यास करने से साधक को राजयोग के पद की प्राप्ति होती है ।
हठ सिद्धि के लक्षण
वपु:कृशत्वं वदने प्रसन्नता नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले ।
अरोगता बिन्दुजयोऽग्निदीपनम् नाडीविशुद्धिर्हठसिद्धिलक्षणम् ।। 78 ।।
भावार्थ :- हठ सिद्धि के लक्षण बताते हुए कहा है कि शरीर में हल्कापन, मुख पर प्रसन्नता, अनाहत नाद का स्पष्ट रूप से सुनाई देना, नेत्रों का निर्मल हो जाना, शरीर से रोगों का अभाव हो जाना, बिन्दु पर विजय प्राप्त होना या नियंत्रण होना, जठराग्नि का प्रदीप्त होना, नाड़ियो का पूरी तरह से शुद्ध हो जाना, ये सब हठयोग की सिद्धि के लक्षण हैं ।
विशेष :- इस श्लोक में हठयोग में सिद्धि प्राप्त हो जाने से शरीर में प्रकट होने वाले लक्षणों का वर्णन किया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह भी महत्त्वपूर्ण श्लोक है ।
।। इति श्री सहजानन्द सन्तानचिंतामणि स्वात्मारामयोगीन्द्रविरचितायां हठप्रदीपिकायां द्वितीयोयोपदेश: ।।
भावार्थ :- इस प्रकार यह श्री सहजानन्द परम्परा के महान अनुयायी योगी स्वात्माराम द्वारा रचित हठप्रदीपिका ग्रन्थ में प्राणायाम की विधि बताने वाले कथन नामक दूसरा उपदेश पूर्ण हुआ ।
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धन्यवाद।
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