मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव मध्यग: ।

कथं स्यादुन्मनीभाव: कार्यसिद्धि: कथं भवेत् ।।

 

भावार्थ :- जब तक हमारी नाड़ियो में मल अर्थात अवशिष्ट पदार्थ भरे होंगे तब तक प्राणवायु मध्यमार्ग अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं कर सकती । और जब तक प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं करेगी तब तक उन्मनी भाव ( समाधि ) कैसे प्राप्त होगी ? और मोक्ष रूपी कार्य किस प्रकार से सिद्ध होंगे ?

 

विशेष :- इस श्लोक में नाड़ी शोधन की आवश्यकता को दर्शाया गया है । नाड़ी की शुद्धि का सबसे सरल व प्रभावी उपाय नाड़ी शोधन प्राणायाम ही होता है । जिसका वर्णन अगले श्लोक में किया जाएगा ।

 

 

शुद्धिमेति यदा सर्वं नाड़ीचक्रं मलाकुलम्

तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षम: ।। 5 ।।

 

भावार्थ :- जब मल से भरी हुई सभी नाड़ियाँ शुद्ध हो जाती हैं । तभी वह योगी प्राण साधना अर्थात प्राणायाम को करने में सक्षम होता है ।

 

प्राणायामं तत: कुर्यात् नित्यं सात्विकया धिया ।

यथा सुषुम्नानाड़ीस्था: मला: शुद्धिं प्रयान्ति च ।। 6 ।।

 

 

भावार्थ :- नाड़ी तन्त्र के शुद्ध हो जाने पर प्रतिदिन सात्विक बुद्धि से प्राणायाम करना चाहिए । जिससे सुषुम्ना नाड़ी में स्थित सभी मलों की शुद्धि हो सके ।

 

 

नाड़ी शोधन प्राणायाम विधि

 

बद्ध पद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत् ।

धारयित्वा यथाशक्ति भूय: सूर्येण रेचयेत् ।। 7 ।।

प्राणं सूर्येण चाकृष्य पूरयेदुदरं शनै: ।

विधिवत् कुम्भकं कृत्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत् ।। 8 ।।

येन त्यजेत्तेन पीत्वा धारयेदनिरोधत: ।

रेचयेच्च ततोऽन्येन शनैरेव न वेगत: ।। 9 ।।

 

भावार्थ :- योगी को पद्मासन में बैठकर पहले बायीं नासिका से प्राणवायु को अन्दर भरकर उसे अपनी सामर्थ्य शक्ति के अनुसार अन्दर ही रोकना चाहिए । इसके बाद उस प्राणवायु को दायीं नासिका से बाहर निकाल दें । फिर प्राणवायु को धीरे- धीरे अपनी दायीं नासिका से शरीर के अन्दर पेट तक भर लेना चाहिए । उसके बाद विधिवत रूप से उसे अन्दर रोकते हुए पुनः बायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाल दें । इस प्रकार जिस नासिका से श्वास को बाहर निकाला हो उसी से श्वास को अन्दर भरें और उसे तब तक अन्दर ही रोके रखें जब तक की बाहर छोड़ने की संवेदना ( बाहर छोड़ने की इच्छा ) न हो जाए । साथ ही दूसरी नासिका से श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़े, कभी भी जल्दबाजी न करें ।

 

 

विशेष :- बायीं नासिका से श्वास को अन्दर भरकर उसे अपने सामर्थ्य के अनुसार अन्दर ही रोककर रखें । फिर श्वास को दायीं नासिका से अन्दर भरकर पुनः यथाशक्ति अन्दर रोके रखें । फिर उसे बायीं नासिका से बाहर निकाल दें । इस प्रकार नाड़ी शोधन का एक चक्र पूरा होता है । श्वास को सदा धीरे- धीरे ही बाहर छोड़ना चाहिए ।

 

 

 तीन महीने में नाड़ी समूह की शुद्धि

 

प्राणं चेदिडया पिबेन्नियमितं भूयोऽन्यया रेचयेत् ।

पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया ।।

सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिनाभ्यासं सदा तन्वतां ।

शुद्धा नाडिगणा: भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वत: ।। 10 ।।

 

भावार्थ :- जब प्राणवायु को बायीं नासिका से अन्दर भरे तो उसे अन्दर रोकने के बाद दायीं नासिका से बाहर निकाल दें । और इसके बाद दायीं से प्राणवायु को अन्दर लेकर यथासंभव कुम्भक करके पुनः उसे बायीं नासिका से बाहर निकाल देना चाहिए । इस प्रकार जो साधक चन्द्र ( बायीं नासिका ) व सूर्य नाड़ी ( दायीं नासिका ) से नियमित रूप से इसका अभ्यास करते हैं उनका पूरा नाड़ी समूह तीन महीने या कुछ ज्यादा समय में शुद्ध हो जाता है ।

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