नाड़ी शुद्धि वर्णन
कुशासने मृगाजिने व्याघ्राजिने च कम्बले ।
स्थलासने समासीन: प्राङ्मुखो वाप्युदङ्मुख: ।
नाड़ीशुद्धिं समासाद्य प्राणायामं समभ्यसेत् ।। 32 ।।
भावार्थ :- प्राणायाम का अभ्यास करने से पहले योगी को नाड़ीशुद्धि का अभ्यास करना चाहिए । इसके लिए उपयुक्त आसन ( बैठने के स्थान ) बताते हुए कहा है कि साधक को कुश से बने आसन पर, मृग ( हिरण ) के चमड़े से बने आसन पर, व्याघ्र ( शेर ) के चमड़े से बने आसन या फिर कम्बल को बिछाकर उसके ऊपर बैठकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके नाड़ीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।
विशेष :- इस श्लोक से सम्बंधित कुछ प्रश्न परीक्षा में पूछे जा सकते हैं । जैसे- प्राणायाम करते समय साधक को किस प्रकार के आसन पर बैठना चाहिए ? उत्तर है कुश, मृग ( हिरण ) के चमड़े की खाल पर, शेर की खाल के चमड़े पर और कम्बल पर । प्राणायाम करते समय साधक को किस दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए ? उत्तर है पूर्व और उत्तर दिशा की ओर । या यह भी पूछा जा सकता है कि साधक को किस दिशा की ओर मुख करके प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए ? उत्तर है पश्चिम व दक्षिण दिशा की ओर ।
नाड़ीशुद्धिं कथं कुर्यान्नाड़ीशुद्धिस्तु कीदृशी ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि तद्वदस्व दयानिधे ।। 33 ।।
भावार्थ :- राजा चण्ड कापालिक महर्षि घेरण्ड को कहते हैं कि हे दयानिधे! यह नाड़ी शुद्धि क्या होता है ? और इस नाड़ी शुद्धि को कैसे किया जाता है ? यह सब मैं आपसे सुनना चाहता हूँ । कृपा आप इसको बताएं ।
मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव गच्छति ।
प्राणायाम: कथं सिध्येत्तत्त्वज्ञानं कथं भवेत् ।
तस्मादादौ नाड़ीशुद्धिं प्राणायामं ततोऽभ्यसेत् ।। 34 ।।
भावार्थ :- जब साधक की नाड़ियों में मल ( अवशिष्ट पदार्थ ) भरा होता है तो उस समय प्राणवायु नाड़ियों के अन्दर नहीं पहुँच पाती है । प्राणवायु के अन्दर प्रवेश न कर पाने से प्राणायाम किस प्रकार सिद्ध हो सकता है अर्थात् साधक को प्राणायाम में सफलता कैसे मिलेगी ? और उसे यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति भी कैसे होगी ? इसलिए सबसे पहले साधक को अपनी नाड़ियों की शुद्धि के लिए नाड़ीशुद्धि का अभ्यास करना चाहिए और उसके बाद प्राणायाम का अभ्यास ।
विशेष :- इससे सम्बंधित प्रश्न :- साधक को पहले नाड़ी शुद्धि का अभ्यास करना चाहिए या प्राणायाम का ? उत्तर है नाड़ीशुद्धि का । नाड़ियों में जमा मल को किसके द्वारा साफ अथवा शुद्ध किया जाता है ? उत्तर है नाड़ीशुद्धि द्वारा ।
नाड़ीशुद्धिर्द्विधा प्रोक्ता समनुर्निर्मनुस्तथा ।
बीजेन समनुं कुर्यान्निर्मनुं धौतकर्मणा ।। 35 ।।
भावार्थ :- यह नाड़ी शुद्धि की प्रक्रिया दो प्रकार से की जाती है । एक समनु तथा दूसरी निर्मनु । नाड़ी शुद्धि का अभ्यास बीजमन्त्र के साथ करने को समनु कहते हैं और बिना मन्त्र के अर्थात् धौतिकर्म के द्वारा करने को निर्मनु कहते हैं ।
विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण श्लोक है । इसमें पूछा जा सकता है कि नाड़ी शुद्धि के कितने प्रकार कहे गए हैं ? उत्तर है दो ( समनु व निर्मनु ) । समनु को किस विधि से किया जाता है अथवा समनु विधि में किसका प्रयोग किया जाता है ? उत्तर है बीजमन्त्र का । निर्मनु में किस विधि का प्रयोग किया जाता है ? उत्तर है धौतिकर्म का ।
धौतकर्म पुरा प्रोक्तं षट्कर्मसाधने यथा ।
श्रृणुष्व समनुं चण्ड! नाड़ीशुद्धिर्यथा भवेत् ।। 36 ।।
भावार्थ :- निर्मनु अर्थात् धौतिकर्म के द्वारा नाड़ी शुद्धि किस प्रकार की जाती है ? इसका वर्णन षट्कर्म के अध्याय में पहले ही किया जा चुका है । यहाँ पर समनु अर्थात् बीजमन्त्र के साथ नाड़ी शुद्धि किस प्रकार की जाती है ? इसका वर्णन सुनो ।
उपविश्यासने योगी पद्मासनं समाचरेत् ।
गुर्वादिन्यासनं कुर्याद् यथैव गुरु भाषितम् ।
नाड़ीशुद्धिं प्रकुर्वीत प्राणायामविशुद्धये ।। 37 ।।
भावार्थ :- नाड़ीशुद्धि के लिए पहले साधक पद्मासन लगाकर बैठे । इसके बाद गुरुओं को प्रणाम करते हुए उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार नाड़ी शुद्धि का अभ्यास करें ताकि उसके बाद प्राणायाम को अच्छी प्रकार से किया जा सके ।
नाड़ी शुद्धि की विधि
वायुबीजं ततो ध्यात्वा धूम्रवर्णं सतेजसम् ।
चन्द्रेण पूरयेद्वायुं बीजै: षोडशकै: सुधी: ।। 38 ।।
चतु:षष्टया मात्रया च कुम्भकेनैव धारयेत् ।
द्वात्रिंशन्मात्रया वायुं सूर्यनाड्या च रेचयेत् ।। 39 ।।
भावार्थ :- बुद्धिमान साधक को चाहिए कि वह धुएँ के जैसे रंग वाले तेजयुक्त वायु के बीजमन्त्र अर्थात् ‘यँ’ का ध्यान करते हुए अपने चन्द्रनाड़ी अर्थात् बायीं नासिका से सोलह ( 16 ) बीजमंत्रो का जाप करते हुए प्राण को शरीर के अन्दर भरे ।
इसके बाद उस अन्दर भरी हुई प्राणवायु को चौसठ ( 64 ) बीजमंत्रों का जाप करते हुए शरीर के अन्दर ही रोके रखें और अन्त में बत्तीस ( 32 ) बीजमंत्रों का जाप करते हुए उस प्राणवायु को सूर्यनाड़ी अर्थात् दायीं नासिका से बाहर निकाल दें ।
नाभिमूलाद्वह्निमुत्थाप्य ध्यायेत्तेजोऽवनीयुतम् ।
वह्निबीजषोडशेन सूर्यानाड्या च पूरयेत् ।। 40 ।।
चतु:षष्टया मात्रया च कुम्भकेनैव धारयेत् ।
द्वात्रिंशन्मात्रया वायुं शशिनाड्या च रेचयेत् ।। 41 ।।
भावार्थ :- नाभि के मूल अर्थात् नाभि के बीच में स्थित अग्नि तत्त्व को ऊपर की ओर उठाते हुए अग्नि तत्त्व के स्थान अर्थात् जहाँ पर मणिपुर चक्र स्थित होता है । वहाँ पर अग्नि के बीजमन्त्र ‘रँ’ का ध्यान करते हुए सूर्यनाड़ी अर्थात् दायीं नासिका से सोलह बीजमन्त्रों का जाप करते हुए प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरें । फिर उस प्राणवायु को चौसठ बीजमन्त्रों का जाप करते हुए शरीर के अन्दर ही रोके रखें । इसके बाद बत्तीस बीजमंत्रों का जाप करते हुए प्राणवायु को चन्द्रनाड़ी अर्थात् बायीं नासिका से बाहर निकाल दें ।
विशेष :- नाड़ीशुद्धि की विधि को हम एक बार सरल तरीके से समझने का प्रयास करते हैं । नाड़ीशुद्धि करते हुए पहले बायीं नासिका से श्वास को सोलह बीजमंत्रों का जाप करते हुए अन्दर भरते हैं । फिर चौसठ बीजमंत्रों का जाप करते हुए उस प्राणवायु को शरीर के भीतर ही रोका जाता है । इसके बाद उस प्राणवायु को बत्तीस बीजमंत्रों का जाप करते हुए दायीं नासिका से बाहर निकाल दिया जाता है । यहाँ तक नाड़ी शुद्धि की आधी विधि होती है । इसके बाद इसी विधि को दायीं नासिका से शुरू करते हुए बायीं नासिका पर खत्म कर दिया जाता है ।
इससे सम्बंधित अनेक प्रश्न बनते हैं । जैसे – नाड़ी शुद्धि करते हुए पहले किस नासिका से प्राणवायु को अन्दर भरा जाता है ? उत्तर है बायीं नासिका से । नाड़ीशुद्धि करते हुए अन्त में किस नासिका से प्राणवायु को बाहर छोड़ा जाता है ? उत्तर है बायीं नासिका से ।
नाड़ीशुद्धि करते हुए प्राणवायु को अन्दर लेने, अन्दर रोकने व वापिस बाहर छोड़ने का क्या अनुपात होता है ? उत्तर है 16:64:32 ( 1:4:2 ) । इसे बीजमन्त्र के अनुसार 16:64:32 का अनुपात कहा जाता है और वैसे सामान्य रूप से उसे 1:4:2 का अनुपात कहा जाता है अर्थात् जितने समय तक प्राणवायु को अन्दर भरते हैं उससे चार गुणा समय तक उसे शरीर के अन्दर रोकना और उससे आधे समय में उसे बाहर निकाल देना ।
इसके अतिरिक्त यह भी पूछा जा सकता है कि बायीं नासिका अर्थात् चन्द्रनाड़ी से श्वास अन्दर लेते हुए किस तत्त्व का ध्यान करना चाहिए ? उत्तर है वायु तत्त्व का । वायु तत्त्व का बीजमन्त्र क्या होता है ? उत्तर है ‘यँ’ ।
दायीं नासिका से अर्थात् सूर्यनाड़ी से श्वास को अन्दर भरते हुए किस तत्त्व का ध्यान करना चाहिए ? उत्तर है अग्नि तत्त्व का । अग्नि तत्त्व का बीजमन्त्र क्या होता है ? उत्तर है ‘रँ’ ।
नासाग्रे शशिधृग्बिम्बं ध्यात्वा ज्योत्स्नासमन्वितम् ।
ठं बीजंषोडशेनैव इडया पूरयेन्मरुत् ।। 42 ।।
चतु:षष्टया मात्रया च वं बीजेनैव धारयेत् ।
अमृतं प्लावितं ध्यात्वा नाड़ीधौतं विभावयेत् ।
लकारेण द्वात्रिंशेन दृढं भाव्यं विरेचयेत् ।। 43 ।।
भावार्थ :- नासिका के अग्रभाग अर्थात् अगले हिस्से पर चन्द्रिका ( चाँदनी से युक्त ) से युक्त चन्द्र तत्त्व का ध्यान करते हुए ‘ठं’ बीजमन्त्र का सोलह बार मानसिक जप करते हुए इडा नाड़ी ( बायीं नासिका ) से श्वास को अन्दर भरें ।
उसके बाद ‘वं’ बीजमन्त्र का चौसठ बार मानसिक जप करते हुए उस प्राणवायु को शरीर के अन्दर ही रोके रखें और नाड़ी मण्डल में अमृत को निरन्तर धारण करने व उसके साथ ही नाड़ीधौति की भावना करनी चाहिए । इसके बाद बत्तीस बार ‘लं’ बीजमन्त्र का मानसिक जप करते हुए प्राणवायु को पिङ्गला नाड़ी ( दायीं नासिका ) से बाहर निकाल दें ।
एवं विधां नाड़ीशुद्धिं कृत्वा नाड़ी विशोधयेत् ।
दृढ़ो भूत्वासनं कृत्वा प्राणायामं समाचरेत् ।। 44 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार विधिपूर्वक नाड़ी शुद्धि का अभ्यास करके अपनी सभी नाड़ियों की भली प्रकार से शुद्धि करें । इसके बाद साधक को दृढ़ता पूर्वक आसन लगाकर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।
विशेष :- साधक को प्राणायाम का अभ्यास किसके बाद करना चाहिए ? उत्तर है नाड़ी शुद्धि के बाद ।
ॐ गुरुदेव!
आपके पुरुषार्थ को शत _शत नमन।
ॐ गुरुदेव !
आपके पुरुषार्थ को शत-शत नमन।
अति सुन्दर व्याख्या ।।
धन्यवाद।