भस्त्रिका प्राणायाम विधि

 

भस्त्रैव लोहकालाणां यथाक्रमेण सम्भ्रमेत् ।

तथा वायुं च नासाभ्यामुभाभ्यां चालयेच्छनै: ।। 74 ।।

एवं विंशतिवारं च कृत्वा कुर्याच्च कुम्भकम् ।

तदन्ते चालयेद्वायुं पूर्वोक्तं च यथाविधि ।। 75 ।।

 

भावार्थ :-  जिस प्रकार लोहार की धौकनी बिना रुकें निरन्तर चलती हुई वायु को अन्दर और बाहर लेती व छोड़ती रहती है । ठीक उसी प्रकार साधक को नासिका के दोनों छिद्रों से वायु को धीरे- धीरे लेना व छोड़ना चाहिए ।

इस विधि को लगातार बीस बार करने के बाद कुछ समय तक वायु को अन्दर ही रोककर कुम्भक करना चाहिए । इसके बाद अर्थात् कुम्भक करने के बाद फिर से पहले वाली विधि से ही वायु को लेना व छोड़ना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  लोहार की धौकनी की भाँति किस प्राणायाम की क्रिया होती है ? उत्तर है भस्त्रिका प्राणायाम की । भस्त्रिका प्राणायाम में कितने अभ्यास के बाद कुम्भक करना चाहिए ? बीस बार के अभ्यास के बाद ।

भस्त्रिका प्राणायाम ऊष्मा अर्थात् गर्मी बढ़ाने वाला होता है । अतः जिनका बी०पी० हाई ( उच्च रक्तचाप ) रहता हो या किसी को नकसीर ( नाक से खून बहना ) आती हो उसे इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए ।

 

 

भस्त्रिका प्राणायाम के लाभ

 

त्रिवारं साधयेदेनं भस्त्रिकाकुम्भकं सुधी: ।

न च रोगो न क्लेशश्च आरोग्यं च दिने दिने ।। 76 ।।

 

भावार्थ :-  बुद्धिमान साधकों को इस भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास तीन बार करना चाहिए । ऐसा करने से साधक सभी रोगों व क्लेशों से दूर रहता है और उसे दिन-  प्रतिदिन आरोग्यता अर्थात् उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है ।

 

 

 

विशेष :-  बुद्धिमान साधकों को भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास दिन में कितनी बार करना चाहिए ? उत्तर है तीन बार । किस प्राणायाम का अभ्यास करने से साधक के क्लेशों का भी नाश हो जाता है या क्लेश दूर हो जाते हैं ? उत्तर है भस्त्रिका प्राणायाम ।

 

 

भ्रामरी प्राणायाम वर्णन

 

अर्धरात्रे गते योगी जन्तूनां शब्दवर्जिते ।

कर्णौपिधाय हस्ताभ्यां कुर्यात् पूरककुम्भकम् ।। 77 ।।

 

भावार्थ :-  योगी को आधी रात के बाद अर्थात् रात्रि के तीसरे पहर में जब सभी जीव-  जंतुओं की आवाज आना पूरी तरह बन्द हो जाती हैं । तब दोनों हाथों से अपने दोनों कानों को बन्द करके श्वास को अन्दर भरे और इसके बाद कुछ समय तक कुम्भक अर्थात् उसे अन्दर ही रोके रखे ।

 

 

 

विशेष :-  किस प्राणायाम का अभ्यास आधी रात के बाद करना चाहिए ? उत्तर है भ्रामरी प्राणायाम । भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास आधी रात के बाद ही क्यों करना चाहिए ? उत्तर है उस समय सभी जीव- जंतुओं की आवाज आना बन्द हो जाती है । जिससे योगी का आसानी से ध्यान लग जाता है ।

 

 

 भ्रामरी प्राणायाम की सिद्धि के लक्षण

 

श्रृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं शुभम् ।

प्रथमं झिञ्झीनादं च वंशीनादं तत: परम् ।। 78 ।।

 

भावार्थ :-  भ्रामरी प्राणायाम के समय योगी अपने दायें कान से शुभ नाद ( मंगलकारी ध्वनि ) को सुने । इसमें उसे पहले झींगुरों की ध्वनि व उसके बाद वंशी ( बासुंरी ) की ध्वनि सुनाई देती है ।

 

 

मेघझर्झरभ्रमरी घण्टाकांस्यं तत: परम् ।

तुरीभेरीमृदङ्गादिनिनादानकदुन्दुभि: ।। 79 ।।

 

भावार्थ :-  उसके बाद उसे मेघ अर्थात् बादलों के बरसने की ध्वनि, भँवरे की ध्वनि, कांसे के घण्टे के जैसी ध्वनि, तुरी ( तुरई ) भेरी, मृदङ्ग आदि नाद व उसके बाद तासे और नगाड़ों की ध्वनि सुनाई पड़ती है ।

 

 

विशेष :-  सबसे पहले किस कान से नाद सुनाई देता है ? उत्तर है दाहिने कान से । सबसे पहले कौन सा नाद सुनाई पड़ता है ? उत्तर है झींगुरों का । इसके अलावा इन सभी नादों के विषय में पूछा जा सकता है ।

 

 

 एवं नानाविधो नादो जायते नित्यमभ्यासात् ।

अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनि: ।। 80 ।।

ध्वनेरन्तर्गतं ज्योति ज्योतिरन्तर्गतं मन: ।

तन्मनो विलयं याति तद्विष्णो: परमं पदम् ।

एवं च भ्रामरीसिद्धि: समाधि सिद्धि माप्नुयात् ।। 81 ।।

 

भावार्थ :-  इस प्रकार साधक को प्रतिदिन इसका अभ्यास करने पर अनेक प्रकार के नाद सुनाई देते हैं । यह नाद उसे अनाहत अर्थात् बिना किसी व्यवधान के सुनाई देते हैं और उनसे उत्पन्न शब्द की जो ध्वनि होती है, उस ध्वनि के अन्तर्गत ( अधीन ) ज्योति होती है और उसी ज्योति के अन्तर्गत हमारा मन होता है ।

यदि हमारा मन उस परमपद विष्णु में लीन हो जाए तो साधक को भ्रामरी की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । भ्रामरी की सिद्धि प्राप्त होने पर साधक को वास्तविक समाधि की प्राप्ति हो जाती है ।

 

 

विशेष :-  नाद की ध्वनि को किसके अन्तर्गत माना गया है ? उत्तर है ज्योति के अधीन । मन को किसके अधीन माना जाता है ? उत्तर है ज्योति के । हमारा मन किसके अन्दर लीन होने से हमें समाधि की सिद्धि प्राप्त होती है ? उत्तर है परमपद विष्णु के अन्तर्गत ।

 

जपादष्टगुणं ध्यानं ध्यानादष्टगुणं तप: ।

तपसोऽष्टगुणं नाद: नादात्परतरं नहि ।। 82 ।।

 

भावार्थ :-  जप से आठ गुणा ज्यादा प्रभावी ध्यान होता है । ध्यान से भी आठ गुणा अधिक प्रभावशाली तप होता है । उस तप से भी आठ गुणा ज्यादा प्रभावी नाद होता है । लेकिन उस नाद से ज्यादा प्रभावी अन्य कुछ भी नहीं होता है ।

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    ????कोटि कोटि प्रणाम. और कोटि कोटि धन्यावाद ????????????????

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