पाँचवा अध्याय ( कर्म सन्यासयोग ) इस अध्याय में मुख्य रूप से कर्मयोग व कर्मसन्यास योग की चर्चा की गई है । इसमें कुल उन्नतीस ( 29 ) श्लोकों का वर्णन है । इस अध्याय में कर्मयोग व सांख्ययोग को एक ही प्रकार का योग बताया है । जब अर्जुन पूछते हैं कि कर्मयोग व

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [1-3]

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ।। 4 ।।     व्याख्या :-   कुछ मूर्ख अथवा अज्ञानी व्यक्ति सांख्ययोग व कर्मयोग को अलग- अलग मानने की भूल करते हैं, लेकिन पण्डित अथवा विद्वान पुरुष ऐसा नहीं मानते । बल्कि विद्वानों का कहना है कि इनमें से ( सांख्ययोग व कर्मयोग में से

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [4-6]

कर्मों में अलिप्तता   योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। 7 ।।     व्याख्या :-  जो कर्मयोगी योगयुक्त हो गया है, जिसका अन्तःकरण ( मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त ) शुद्ध हो गया है, जिसने अपनी इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है अथवा जिसने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [7-9]

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। 10 ।।     व्याख्या :-  जो व्यक्ति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्मों का ब्रह्मा में समर्पण करता है, वह पापों से उसी प्रकार अलिप्त ( अलग ) रहता है जिस प्रकार कमल के पत्ते कीचड़ अथवा पानी से अलिप्त

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [10-12]

मानव शरीर में स्थित नव द्वार   सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।। 13 ।।     व्याख्या :-  सभी कर्मों में मन द्वारा सन्यास अथवा सांख्ययोग का पालन करने वाला पुरुष नवद्वारों वाले ( नौ द्वारों वाले ) शरीर रूपी नगर में बिना कर्म किये व करवाएं

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [13-17]

“विद्या ददाति विनयम”   विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।। 18 ।।     व्याख्या :-  जिन ज्ञानीजनों ने विद्या से प्राप्त होने वाले विनय को प्राप्त कर लिया है, वे ज्ञानीजन ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता व चाण्डाल आदि सभी प्राणियों में एक समान दृष्टि रखते हैं अर्थात् वह

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [18-20]

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।। 21 ।।     व्याख्या :-  जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले बाह्य पदार्थों के विषयभोग में आसक्ति नहीं रखता और केवल अपनी आत्मा में स्थित सुख को ही जानता है, वह ब्रह्मयोग से युक्त, कभी भी न समाप्त होने वाले सुख को भोगता है ।

Read More
Bhagwad Geeta Ch. 5 [21-23]