बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।। 21 ।।
व्याख्या :- जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले बाह्य पदार्थों के विषयभोग में आसक्ति नहीं रखता और केवल अपनी आत्मा में स्थित सुख को ही जानता है, वह ब्रह्मयोग से युक्त, कभी भी न समाप्त होने वाले सुख को भोगता है ।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।। 22 ।।
व्याख्या :- हे कौन्तेय ! जो सुख इन्द्रियों अर्थात् बाह्य पदार्थों के संयोग से प्राप्त होते हैं, वह नष्ट होने वाले व दुःखों को देने वाले होते हैं । ज्ञानीजन कभी उनमें ( क्षणिक सुखों में ) रमण अर्थात् लीन नहीं होते ।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।। 23 ।।
व्याख्या :- जिस मनुष्य ने मृत्यु से पहले अर्थात् इसी जीवन में काम व क्रोध से उत्पन्न होने वाले उद्वेगों को सहन करना सीख लिया है अर्थात् जो काम व क्रोध से पैदा होने वाले आवेश को सहन करने में सक्षम हो गया है, वही वास्तव में योगी है और सुखी भी है ।