पाँचवा अध्याय ( कर्म सन्यासयोग )

इस अध्याय में मुख्य रूप से कर्मयोग व कर्मसन्यास योग की चर्चा की गई है । इसमें कुल उन्नतीस ( 29 ) श्लोकों का वर्णन है । इस अध्याय में कर्मयोग व सांख्ययोग को एक ही प्रकार का योग बताया है । जब अर्जुन पूछते हैं कि कर्मयोग व सन्यास योग में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है ? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह दोनों ही मार्ग अपनी- अपनी जगह पर श्रेष्ठ हैं । लेकिन इनमें से एक की ही बात की जाए तो निश्चित रूप से कर्मयोग ही श्रेष्ठ मार्ग है । क्योंकि सन्यासयोग को प्राप्त करने के लिए भी कर्मयोग का आश्रय लेना पड़ता है । बिना कर्मयोग के सन्यासयोग को नहीं साधा जा सकता । इसलिए यहाँ पर सन्यासयोग कि अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है । यहाँ पर कर्मयोग के विषय में बताया गया है कि सही रूप में कर्मयोग वह होता है जिसमें कर्ता में कर्तापन का भाव ही समाप्त हो जाए अर्थात् व्यक्ति जब कर्म को योगयुक्त होकर करता है, तो वह उस कर्म के बन्धन में नहीं फंसता । इस प्रकार किए जाने वाले कर्म को ‘अकर्म’ कहा गया है । इसमें कर्ता कर्म के बन्धन से उसी प्रकार अलिप्त रहता है जिस प्रकार कमल का फूल पानी में रहते हुए भी पानी से अलिप्त रहता है । इसके अलावा मुक्त आत्मा के लक्षणों को बताते हुए कहा गया है कि जिस भी मनुष्य की बुद्धि संशय रहित हो गई है, जो पूरी तरह से संयमित हो चुका है, जिसके राग- द्वेष समाप्त हो चुके हैं, जिसने अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण प्राप्त कर लिया है व जो निरन्तर परमात्मा का ध्यान करता है । वही व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी होता है ।

 

 

अर्जुन उवाच


सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ।। 1 ।।

 

 

व्याख्या :-  अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हुए कहता है कि हे कृष्ण ! आप कभी कर्मसन्यास की प्रशंसा करते हैं और कभी कर्मयोग की, इन दोनों ( कर्मसन्यास व कर्मयोग ) में से जो सबसे अच्छा व श्रेष्ठ हो, उसका निश्चय करके मुझे बताइये ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में अर्जुन कर्मसन्यास व कर्मयोग में से सबसे उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ मार्ग को जानने के लिए उत्सुक है । जिसका अगले ही श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं ।

 

 

कर्मयोग की श्रेष्ठता

 

श्रीभगवानुवाच


सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।। 2 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा :- हे अर्जुन ! निःसन्देह कर्मसन्यास व कर्मयोग दोनों ही साधनाएँ अत्यन्त श्रेष्ठ हैं व मुक्ति प्रदान करवाने वाली हैं । परन्तु इन दोनों ही मार्गों अथवा साधनाओं में कर्मसन्यास की अपेक्षा कर्मयोग ज्यादा विशिष्ट अथवा श्रेष्ठ है ।

 

 

 

विशेष :-  परीक्षा की दृष्टि से यह श्लोक महत्वपूर्ण है, इसके सम्बंध में पूछा जा सकता है कि कर्मसन्यास व कर्मयोग में से किस योग साधना को ज्यादा श्रेष्ठ माना गया है ? जिसका उत्तर है कर्मयोग को कर्मसन्यास से ज्यादा श्रेष्ठ माना गया है ।

 

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।। 3 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे महाबाहो अर्जुन ! जो व्यक्ति न तो किसी से द्वेष रखता है और न ही जिसकी किसी प्रकार की कोई कामना अथवा इच्छा है, ऐसे व्यक्ति को सदा सन्यासी ही समझना चाहिए । इस प्रकार राग व द्वेष आदि क्लेशों से मुक्त व्यक्ति के सभी द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं और वह सुखपूर्वक सभी कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है ।

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