साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 4 ।।
व्याख्या :- कुछ मूर्ख अथवा अज्ञानी व्यक्ति सांख्ययोग व कर्मयोग को अलग- अलग मानने की भूल करते हैं, लेकिन पण्डित अथवा विद्वान पुरुष ऐसा नहीं मानते । बल्कि विद्वानों का कहना है कि इनमें से ( सांख्ययोग व कर्मयोग में से ) किसी एक की साधना करने पर भी साधक दोनों साधनाओं के फल को प्राप्त कर लेता है ।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। 5 ।।
व्याख्या :- सांख्ययोग की साधना करने वाला साधक जिस स्थान अर्थात् परमपद को प्राप्त करता है, कर्मयोग की साधना करने वाला साधक भी उसी स्थान अथवा परमपद को प्राप्त करता है, इसलिए सांख्ययोग व कर्मयोग दोनों को एक ही रूप में देखने अथवा मानने वाला साधक ही वास्तविक अथवा सच्चा साधक होता है ।
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।। 6 ।।
व्याख्या :- हे महाबाहो अर्जुन ! कर्मयोग के बिना सन्यास को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, जबकि कर्मयोग से युक्त मुनि बिना किसी विलम्ब के शीघ्रता से ब्रह्मा को प्राप्त कर लेता है ।
विशेष :- कर्मयोग का त्याग करके कोई भी व्यक्ति सन्यास मार्ग में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि बिना कर्मयोग के सन्यास को प्राप्त नहीं किया जा सकता । कर्मयोग की साधना करके साधक उस ब्रह्मा को बिना कोई देरी किये प्राप्त कर लेता है ।
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