ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। 10 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो व्यक्ति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्मों का ब्रह्मा में समर्पण करता है, वह पापों से उसी प्रकार अलिप्त ( अलग ) रहता है जिस प्रकार कमल के पत्ते कीचड़ अथवा पानी से अलिप्त अथवा अलग रहते हैं ।

 

विशेष :-  कर्मफल की आसक्ति का त्याग व परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण ही पाप से बचने का उपाय है । अतः हमें अपने जीवन में प्रत्येक कार्य को फल की इच्छा का त्याग करते हुए ईश्वर प्रणिधान ( ईश्वर में समर्पण ) का पालन करना चाहिए । तभी हम कर्मबन्धनों से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं । इसके विपरीत जब तक हमारी कर्मफल में आसक्ति रहेगी, तब तक हम कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाएंगे ।

 

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  कर्मयोगी कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके केवल शरीर, मन, बुद्धि व इन्द्रियों से भी आत्मशुद्धि के लिए कर्म करता है ।

 

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।। 12 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो व्यक्ति योगयुक्त हो गया है, वह कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके परमशान्ति को प्राप्त करता है और जो व्यक्ति योगयुक्त नहीं है अर्थात् जो कर्मफल की आसक्ति से युक्त होकर कर्म करता है, वह सदा कर्मबन्धन में बंधा रहता है ।

 

 

विशेष :- कर्मफल में आसक्ति अथवा लगाव बन्धन का व कर्मफल की आसक्ति का त्याग मुक्ति का कारण हैं ।

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