कर्मों में अलिप्तता
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। 7 ।।
व्याख्या :- जो कर्मयोगी योगयुक्त हो गया है, जिसका अन्तःकरण ( मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त ) शुद्ध हो गया है, जिसने अपनी इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है अथवा जिसने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है, और जो सम्पूर्ण प्राणियों को अपने आत्मरूप अर्थात् अपने आत्मा के समान समझता है, ऐसा कर्मयोगी सभी कर्म करते हुए भी कर्मों से अलिप्त अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त रहता है ।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।। 8 ।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।। 9 ।।
व्याख्या :- योगयुक्त पुरुष को देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूँघते हुए, भोजन ग्रहण करते हुए, चलते हुए, सोते हुए, श्वास लेते व छोड़ते हुए, बोलते हुए, मल- मूत्र का त्याग करते हुए, लेते हुए, आँख खोलते व बन्द करते हुए केवल इसी बात की धारणा अथवा विचार करना चाहिए कि सभी इन्द्रियाँ अपना- अपना कार्य कर रही हैं । मैं अर्थात् आत्मा इन सभी कार्यों से बिलकुल भिन्न अथवा अलग है ।
विशेष :- ऊपर श्लोक में वर्णित सभी क्रियाएँ हमारी इन्द्रियों द्वारा सम्पन्न होती हैं । हमारी कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों द्वारा यह सब किया जाता है । आत्मा इन सभी कार्यों से अलिप्त अथवा अलग है । जब भी कोई व्यक्ति यह मानने लगता है कि यह सब मेरे ( आत्मा ) द्वारा किया जा रहा है, तो वह कर्मबन्धन में फँसता चला जाता है, लेकिन जो स्वयं ( आत्मा ) को इन सबसे अलग मानता हुआ, इन सबको इन्द्रियों द्वारा सम्पन्न क्रिया मानने लगता है । तब वह सभी कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है ।
Thanks somveer ji, for explanation in Vishesh, this is kind of very complex message given in 5.8-5.9.
ॐ गुरुदेव!
बहुत बहुत आभार आपका।