मानव शरीर में स्थित नव द्वार

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।। 13 ।।

 

 

व्याख्या :-  सभी कर्मों में मन द्वारा सन्यास अथवा सांख्ययोग का पालन करने वाला पुरुष नवद्वारों वाले ( नौ द्वारों वाले ) शरीर रूपी नगर में बिना कर्म किये व करवाएं सुखपूर्वक अथवा आनन्द से निवास करता है ।

 

 

विशेष :-  मानव शरीर में कौन से नौ द्वार होते हैं ? उत्तर है दो आँखें, दो कान, दो नासिका, एक मुँह, एक मूत्रेन्द्रिय और एक गुदा ।

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। 14 ।।

 

 

व्याख्या :-  प्रभु अर्थात् परमात्मा मनुष्यों में कर्मों, कर्तापन व कर्मफल के संयोग की रचना नहीं करता है, बल्कि मनुष्य का स्वयं का स्वभाव ही इन क्रियाओं की रचना करता है ।

 

 

विशेष :-  मनुष्य के अन्दर कर्मों की, उसके कर्तापन के भाव की व कर्मफल के सम्बन्ध की रचना कभी भी परमात्मा नहीं करता है, बल्कि मनुष्य अपने स्वभाव से इन सबको उत्पन्न करता है । इनकी उत्पत्ति में परमात्मा का कोई योगदान नहीं होता ।

 

 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। 15 ।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ।। 16 ।।

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।। 17 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  सर्वव्यापी परमात्मा न तो कभी किसी के पापों को ग्रहण करता है और न ही किसी के पुण्यों को, परन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए ज्ञान के कारण इधर – उधर भटकता रहता है ।

 

लेकिन जिन मनुष्यों ने ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया है, उनका वह ज्ञान परमात्मा को सूर्य के प्रकाश की भाँति प्रकाशित करता है ।

 

और जिन मनुष्यों की बुद्धि परमात्मा में ही लीन हो गई है, जिन्होंने निष्ठापूर्वक अपने आप को परमात्मा में अर्पित कर दिया है, ऐसे मनुष्य सर्वथा पाप रहित होकर इस पृथ्वी पर कभी भी पुनः जन्म नहीं लेते हैं अर्थात् वह पुनर्जन्म के बन्धन से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं ।

 

 

विशेष :-  जिस प्रकार देवताओं का सिद्धान्त है कि वह किसी से कुछ भी ग्रहण नहीं करते, वैसे ही उन सभी देवों का देव परमात्मा भी किसी से कुछ ग्रहण नहीं करता है । देवता उसे कहते हैं जो सदा देने का भाव रखता है और बदले में कभी भी लेने का भाव नहीं रखता । परमात्मा उन सभी देवों का भी देव है, इसलिए परमात्मा न तो किसी के शुभ कर्मों को ग्रहण करता है और न ही अशुभ कर्मों को ।

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