कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। 6 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो मनुष्य अपनी कर्मेन्द्रियों ( हाथ- पैर आदि ) से विषयों ( इच्छाओं ) का त्याग कर देते हैं और मन ही मन उन सभी विषयों का चिन्तन- मनन करते रहते हैं । उन्हें इन्द्रियों के विषयों ( रूप, रस, गन्ध आदि ) का चिन्तन करने के कारण पाखण्डी अथवा झूठे आचरण वाला कहा जाता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में उन व्यक्तियों के ऊपर कटाक्ष किया गया है जो दिखावे के लिए तो संयमी होते हैं । परन्तु वास्तव में उनके मन में सभी विषयों को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रहती है । ऐसे लोगों को मिथ्या आचरण वाला कहा जाता है । यह केवल कर्मेन्द्रियों का संयम ( बाहरी ) करते हैं । आन्तरिक रूप से यह पूरी तरह से विषयों में लिप्त अथवा आसक्त होते हैं ।

 

 

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।। 7 ।।

 

 

व्याख्या :-  किन्तु हे अर्जुन ! इन मिथ्या आचरण करने वालों मनुष्यों से वे मनुष्य बहुत अधिक श्रेष्ठ होते हैं, जो अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण करके, अपनी कर्मेन्द्रियों द्वारा निष्काम भाव ( आसक्ति रहित ) से कर्म करते हैं ।

 

 

विशेष :-  व्यक्ति को अपनी कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों द्वारा कार्यों का सम्पादन तो करना ही पड़ता है । लेकिन उसमें भाव सबसे महत्वपूर्ण होता है । जब भी कोई कार्य इन्द्रियों के वशीभूत होकर किया जाता है तो वह आसक्ति युक्त कर्म कहलाता है और इसके विपरीत जब भी कोई कार्य केवल कर्तव्य कर्म मानकर किया जाता है । तब वह कर्म निष्काम भाव से युक्त कर्म कहलाता है ।

 

 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।। 8 ।।

 

 

व्याख्या :-  प्रत्येक व्यक्ति को अपने नित्य कर्मों को कर्तव्य की भावना से करते रहना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा तो कर्म करना ही श्रेष्ठ होता है । कर्म किये बिना तो इस शरीर का पालन – पोषण करना भी असम्भव हो जाएगा । अतः नियत कर्म करना ही मनुष्य के लिए हितकारी होता है ।

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