ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।। 31 ।।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।। 32 ।।
व्याख्या :- जो भी पुरुष मेरे द्वारा बताई गई बातों में दोष दृष्टि को त्यागकर श्रद्धापूर्वक उनका पालन करता है, वह सभी प्रकार के कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है ।
इसके विपरीत जो अज्ञानी व्यक्ति मेरे द्वारा बताई गई बातों में दोष देखते हुए मेरी शिक्षाओं का पालन नहीं करते हैं, तुम उनकी बुद्धि को नष्ट हुई ही समझो ।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।। 33 ।।
व्याख्या :- सभी व्यक्ति अपनी- अपनी प्रकृति के वशीभूत होकर ही कार्य करते हैं, फिर चाहे वह ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी । जब सभी व्यक्ति अपने – अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करते हैं, तो इसमें किसी प्रकार का हठ अर्थात् जोर – जबरदस्ती क्या करेगी ?
विशेष :- सभी व्यक्तियों का अपना – अपना स्वभाव होता है, उसी के अनुसार वह अपना व्यवहार करते हैं । ज्ञानी व्यक्ति अपने विवेकी स्वभाव व अज्ञानी व्यक्ति अपने अविवेकपूर्ण स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करते हैं । किसी के साथ किसी भी प्रकार की जबरदस्ती नहीं है ।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।। 34 ।।
व्याख्या :- प्रत्येक इन्द्रिय ( आँख, कान, नासिका, जिह्वा व त्वचा ) का अपने – अपने विषयों में राग ( लगाव ) व द्वेष ( कटुता ) स्वभाविक रूप से विद्यमान होतें हैं । ज्ञानी पुरुष को राग व द्वेष नामक दोनों ही दोषों से रहित होना चाहिए, क्योंकि यह दोनों ही दोष योग मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं ।
विशेष :- इस श्लोक में राग व द्वेष नामक क्लेशों के विषय में बताते हुए कहा है कि ज्ञानी मनुष्य को इन दोषों से बचना चाहिए । इन दोनों दोषों ( राग – द्वेष ) को योग मार्ग में बाधक माना गया है ।
Thank you sir ???
Guru ji nice explain about avoid raga or devasa.