श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। 35 ।।

 

 

व्याख्या :-  दूसरे के ज्यादा सुखकारी अथवा अच्छे दिखने वाले परधर्म से अपना कठिन व कम अच्छा दिखने वाला स्वधर्म ही ज्यादा कल्याणकारी होता है । अपने स्वयं के धर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेष्ठ है, परन्तु दूसरे के धर्म का पालन करना भयानक होता है । इसलिए मनुष्य को सदा अपने स्वधर्म का ही अनुष्ठान अथवा पालन करना चाहिए । स्वधर्म का पालन करना ही मनुष्य के लिए कल्याणकारी होता है ।

 

 

विशेष :-  गीता के इस श्लोक में मानव के परमकल्याण की बात कही गई है । जो भी व्यक्ति इस श्लोक की शिक्षा को अपने जीवन में लागू करेगा, वह निश्चित रूप से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा ।

 

पहले इस श्लोक में वर्णित धर्म शब्द का विश्लेषण करते हैं, क्योंकि धर्म शब्द को लेकर समाज में बहुत सारी भ्रांतियाँ फैली हुई हैं । सामान्य रूप से ज्यादातर लोग धर्म शब्द का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, सिख व ईसाई आदि पन्थों अथवा इनकी पूजा पद्धतियों को ही समझते हैं, जबकि यह सभी अलग- अलग पन्थ होते हैं ।

 

धर्म शब्द का अर्थ होता है कर्तव्य, जिसे अंग्रेजी भाषा में ड्यूटी कहा जाता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने वास्तविक स्वभाव  के अनुसार ही अपना व्यवसाय अथवा कार्य चुनता है । जैसे – किसी को पढ़ाना अच्छा लगता है, किसी को कृषि करना अच्छा लगता है, कोई वैज्ञानिक बनना पसन्द करता है, किसी को सैनिक बनना अच्छा लगता है, किसी को खेलना पसन्द है, कोई व्यवसाय अर्थात् बिजनेस करना पसन्द करता है ।

 

इस प्रकार सभी व्यक्ति अपनी योग्यता व स्वभाव के अनुसार अपना- अपना कार्यक्षेत्र चुनते हैं । अब जीवन में बहुत बार ऐसा समय भी आता है कि हम अपने कार्यक्षेत्र में कुछ अड़चनों के कारण आगे नहीं बढ़ पाते हैं । उस समय हमारा ध्यान दूसरों के कार्य पर ज्यादा होता है । उदाहरण के तौर पर जब कोई लड़का किसी नौकरी के लिए परीक्षा की तैयारी करता है और किसी कारण से उस परीक्षा में सफल नहीं हो पाता है, तब उसे निराशा होती है । इस निराशा के समय उसका ध्यान कई बार अलग- अलग क्षेत्रों की ओर भी चला जाता है ।

 

जैसे हमें कोई हमारा साथी या परिवार का व्यक्ति किसी युवा उद्यमी ( यंग बिजनेस मैन ) की सफलता की कहानी बताता है, तो उसे सुनकर लगता है कि मुझे भी युवा उद्यमी ही बनना चाहिए । इस क्षेत्र में सफल होने की ज्यादा सम्भावना लगती है । या फिर हम किसी युवा खिलाड़ी के विषय में सुनते हैं तो हमें लगता है कि खिलाड़ी बनना ज्यादा आसान है, बजाय किसी नौकरी के लिए परीक्षा की तैयारी करने के । इस प्रकार हम एक के बाद एक क्षेत्र के विषय में विचार करते रहते हैं और उनमें आसान सफलता को देखने की गलत धारणा बनाते रहते हैं ।

 

यह बात बिलकुल सच है कि प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत सारी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है । लेकिन हमें बहुत बार ऐसा लगता है कि मेरे क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र की बजाय ज्यादा परेशानी है । यहीं से स्वधर्म व परधर्म की दो विचारधारा बनती हैं ।

 

दूर से देखने पर हमें दूसरे का क्षेत्र अथवा व्यवसाय आसान ही लगता है, जबकि वह इतना आसान नहीं होता है । हमें वह आसान इसलिए भी लगता है क्योंकि अभी तक हमने उस क्षेत्र की कठिनाइयों को नहीं देखा होता है, लेकिन जैसे ही हम अपने स्वभाविक क्षेत्र अथवा व्यवसाय को छोड़कर दूसरे के व्यवसाय को अपनाते हैं, वैसे ही हमें उसकी भयानकता दिखाई देती है ।

 

इस प्रकार जब हम दूसरे के क्षेत्र की भयानकता को देखते हुए उसे भी छोड़ देते हैं, तो हम किसी तीसरे व्यवसाय की ओर आकर्षित हो जाते हैं । ऐसे ही एक के बाद एक व्यवसाय अथवा क्षेत्र को बदलने के बाद जब हम अपने पहले वाले कार्यक्षेत्र को देखते हैं तो हमें वही ज्यादा उपयुक्त व आसान लगने लगता है ।

 

ठीक इसी प्रकार की स्थिति यहाँ पर अर्जुन की थी । जिसका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ, जिसने क्षत्रिय धर्म की शिक्षा ग्रहण की और अनेकों युद्धों में जिसने विजय प्राप्त की हो, आज वही वीर योद्धा युद्ध की बजाय भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने की बात कह रहा है । इसे ही परधर्म कहा गया है ।

 

जब व्यक्ति अपने मूल स्वभाव को छोड़कर अन्य किसी के स्वभाव का अनुसरण करता है, तो वह उसके लिए बहुत भयानक होता है । इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि परधर्म का पालन करने की बजाय अपने स्वधर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेष्ठ होता है ।

 

परधर्म के विषय में एक पुरानी कहावत भी है “जिसका काम उसी को साजे और करे तो डंडा बाजे”  इसका अर्थ है कि जो जिसका काम होता है, वह उसी के लिए फायदेमंद होता है यदि कोई दूसरा उसके काम में हस्तक्षेप करेगा तो बिना मतलब के झगड़ा ही होगा । यदि विचार किया जाए तो कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के स्वभाव के कार्य को अच्छी तरह से नहीं कर सकता अर्थात् कार्य में कुशलता तभी आती है जब कार्य अपने स्वभाव के अनुरूप हो । अन्यथा तो कार्य का पतन ही होता है ।

 

इस प्रकार स्वधर्म की महत्ता का वर्णन इस श्लोक में किया गया है । इसी श्लोक के सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण गीता के अठारहवें अध्याय के 60 वें श्लोक में कहा है कि हे अर्जुन ! तुम जिस मोह के वशीभूत होकर अपने स्वभाव कर्म को छोड़ने की बात कह रहे थे, उसी स्वभाव से विवश होकर तुम्हें यह युद्ध करना ही पड़ता ।

 

इससे हमें इस बात का पता चलता है कि हमें कभी भी अपने स्वभाव की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने स्वभाव के अनुरूप ही सभी कार्य करने चाहिए ।

 

स्वभाव से निर्मित कार्य करने से ही हमें सिद्धि प्राप्त होती है । अपने स्वभाव को त्यागकर दूसरे के स्वभाव को अपनाना हमारे लिए मृत्यु से भी भयानक होता है ।

 

अतः हमें सदा स्वभाव कर्म का ही पालन करना चाहिए । यही हमारे लिए परम कल्याणकारी होता है ।

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