ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम् ।। 8 ।।

 

शब्दार्थ :- तत: ( उन अर्थात अन्य तीन प्रकार के कार्यों से ) तद् ( उन ) विपाक ( कर्मों के फल ) अनुगुणानाम् ( भोगों के अनुसार ) एव ( ही ) वासनानाम् ( वासनाएँ अर्थात संस्कार ) अभिव्यक्ति: ( प्रकट अथवा उत्पन्न होती हैं )

 

 

सूत्रार्थ :- जो योगियों के अतिरिक्त अन्य तीन प्रकार के कार्य होते हैं । उन कार्यों के अनुसार ही व्यक्ति को उनके फल भोगों की प्राप्ति वासनाओं अर्थात संस्कारों के रूप में होती है।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में शुभ- अशुभ व मिश्रित कर्मों के फल की चर्चा की गई है ।

 

यहाँ पर अशुक्ल- अकृष्ण कर्म के अतिरिक्त बचे हुए तीन कर्मों के फलों की चर्चा की गई है । जो निष्काम कर्म होते हैं, उनके अलावा तीन प्रकार ( पुण्य कर्म, पाप कर्म व पाप- पुण्य मिश्रित कर्म ) के कर्म और होते हैं । इन्हें क्रमशः शुभ, अशुभ व शुभाशुभ मिश्रित कर्म भी कहते हैं । जिनका उल्लेख पिछले सूत्र में किया गया है ।

 

इनमें से जो पाप- पुण्य से रहित जो निष्काम कर्म हैं । उनसे तो योगियों के अन्दर किसी भी प्रकार के कर्म संस्कार बनते ही नहीं हैं । बाकी बचे इन तीनों प्रकार के कर्मों में व्यक्ति के भीतर कर्म संस्कार अर्थात वासनाएँ बनती रहती हैं ।

 

हम यहाँ पर एक बात को स्पष्ट करना अति आवश्यक मानते हैं । जो वासना से जुड़ी हुई है । सामान्य तौर से हमारे समाज में वासना को कामुकता अर्थात सम्भोग आदि क्रियाओं का प्रेरित करने वाली माना जाता है । यह वासना का दूसरा पहलू हो सकता है । परन्तु सूत्र में वासना का अर्थ कामुकता या सम्भोग आदि क्रियाओं से नहीं है । यहाँ पर वासना का अर्थ है इच्छाओं या कामनाओं का होना । जैसे- जीवन में सुख व  आनन्द को भोगने व स्वर्ग आदि में जाने की इच्छाओं का होना ।

 

 

जो योगी योग साधना द्वारा क्लेशों को निर्बल करके अपने चित्त को शुद्ध कर लेता है । वह इन सभी कर्म संस्कारों से रहित हो जाता है । अर्थात उसके चित्त में किसी तरह की कोई भी वासना शेष नहीं बचती । इसके अलावा शुभ, अशुभ व शुभाशुभ मिश्रित कर्म वाले साधकों के चित्त में संस्कार बनते रहते हैं । यही कर्म संस्कार पुनः जन्म होने का कारण बनते हैं ।

 

जो मनुष्य जैसे कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है । शुभ कर्म करने वाला सुख व आनन्द को भोगता है । अशुभ कर्म करने वाला दुःख- दर्द को भोगता रहता है । और जो शुभाशुभ मिश्रित कर्म करता है वह सुख- दुःख दोनों को भोगता है ।

 

इन्हीं कर्मों के आधार पर उनके संस्कार बनते हैं । और उन संस्कारों के आधार पर ही इनको अगला जन्म मिलता है । विद्वानों का कहना है कि जो शुभ अर्थात पुण्य कर्म करता है उसे अच्छा कुल व अच्छे माँ- बाप मिलते हैं । जो मिश्रित कर्म करता है उसे साधारण मनुष्य का जन्म मिलता है । और जो पाप अर्थात अशुभ कर्म करता है उसे पशु- पक्षियों व कीट- पतंगों की योनि में जन्म मिलता है ।

 

इस प्रकार जीव जिस भी योनि में जन्म लेता है उसके वैसे ही संस्कार बनते रहते हैं । सुख व आनन्द देने वाले कर्म करने से नरक आदि को प्राप्त करने वाले संस्कार नहीं बन सकते । ठीक इसी प्रकार नरक को प्राप्त होने वाले कर्म करने से दैवीय संस्कार नहीं बन सकते ।

 

अतः हम सभी को जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त करने के लिए निष्काम कर्म ही करने चाहिए । तभी हम कर्म संस्कार के बीज से मुक्त हो पाएंगे ।

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  1. प्रणाम आचार्य जी! कर्मो व परिणाम के इस सजगता को गहन रूप से समझाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद श्रीमान आचार्य जी! ??

  2. बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी इतने सहज और सरल शब्दों में आपने समझाया है

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