तत: कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् ।। 32 ।।
शब्दार्थ :- तत: ( उसके अर्थात धर्ममेघ समाधि के प्राप्त होने के पश्चात ) कृतार्थानाम् ( अपने सभी भोग व अपवर्ग रूपी कार्यों के पूरा करने वाले ) गुणानाम् ( गुणों के ) परिणामक्रम ( परिणामों के क्रम अर्थात उनके उत्पत्ति क्रमों की ) समाप्ति: ( समाप्ति हो जाती है )
सूत्रार्थ :- धर्ममेघ समाधि के बाद अपने सभी कार्यों को पूरा कर चुके गुणों के परिणाम क्रम की उत्पत्ति का क्रम समाप्त हो जाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में योगी के परिणाम क्रम की समाप्ति की बात कही गई है ।
जब योगी को धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति हो जाती है । तब सत्त्व, रज व तम नामक गुणों का परिणाम क्रम समाप्त हो जाता है । यह त्रिगुण ही मनुष्य के भोग और अपवर्ग को पूरा करने का काम करते हैं । जितने भी भोग व अपवर्ग रूपी कार्य होते हैं । उन सभी का उदय इन त्रिगुणों द्वारा होता है । इन गुणों का प्रवाह प्रकृति से लेकर बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ व पंच महाभूत तक निरन्तर चलता रहता है । इन सभी तत्त्वों के निर्माण व कार्यों में त्रिगुणों का समावेश होता है ।
उस धर्ममेघ समाधि के प्राप्त होने पर इन त्रिगुणों के परिणाम का क्रम भी अपने आप ही समाप्त हो जाता है । इन तीन गुणों में से किसी भी एक गुण के प्रभावी होने या गौण होने पर जो परिवर्तन होता है । उसी को क्रम कहते हैं । इनके क्रम का परिणाम रुकने या समाप्त होने पर मनुष्य का जीवन- मरण का जो क्रम होता है । वह भी अपने आप ही समाप्त हो जाता है ।
जब कारण की ही समाप्ति हो जाती है । तब कार्य का क्या औचित्य रह जाता है ? क्योंकि किसी भी कार्य की उत्पत्ति का मुख्य कारण होता है कारण का पहले से ही कार्य में मौजूद होना । लेकिन यहाँ पर जन्म- मरण के कारण अर्थात सत्त्व, रज व तम नामक गुणों के परिणाम क्रम के समाप्त होने पर । कार्य अर्थात जन्म- मरण का चक्र स्वयं ही समाप्त हो जाता है । इस परिणाम क्रम के समाप्त होते ही साधक की सभी वृत्तियाँ एक पल के लिए भी उपस्थित नहीं रह सकती ।
अतः परिणाम क्रम की समाप्ति होने पर साधक की सभी वृत्तियाँ व जन्म- मरण का क्रम भी स्वयं ही समाप्त हो जाता है ।
Thanku sir??
ॐ गुरुदेव*
बहुत सुन्दर व्याख्या ।
आपका परम आभार।
Pranaam Sir! ??thank you
??प्रणाम आचार्य जी! इस सुंदर शिक्षा को हमे देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ओम ?