पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।। 34 ।।

  

शब्दार्थ :- पुरुषार्थ ( जीवन के प्रयोजन या लक्ष्य से ) शून्यानां ( शून्य अर्थात रहित हुए ) गुणानाम् ( गुणों का ) प्रतिप्रसव: ( अपने कारण में लीन अर्थात वापिस मिल जाना ही ) कैवल्यम् ( कैवल्य अर्थात मुक्ति है ) वा ( या फिर ) चितिशक्ति: ( उस पुरुष अथवा आत्मा का ) स्वरूप ( अपने वास्तविक स्वरूप में ) प्रतिष्ठा ( प्रतिष्ठित या स्थित हो जाना ) इति ( इस योगशास्त्र के पूर्ण होने का परिचायक है )

 

 

सूत्रार्थ :- इस जीवन के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से रहित हुए गुणों का वापिस अपने कारण में लीन हो जाना ही कैवल्य ( मुक्ति ) होता है । या आत्मा का अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाना ही  मोक्ष कहलाता है ।

 

 

व्याख्या :- यह इस पाद व योगसूत्र का अन्तिम सूत्र है । जिसमें जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है ।

 

प्रकृति व उससे उत्पन्न उसके बाकी के 23 तत्त्वों का उद्देश्य जीवात्मा को भोग अर्थात सांसारिक संसाधनों का प्रयोग करते हुए अपवर्ग ( मोक्ष ) तक पहुँचाने का होता है । यहाँ पर प्रकृति व उससे उत्पन्न अन्य 23 ही तत्त्वों की बात कही गई है । इनमें प्रकृति को शामिल करने से इनकी संख्या 24 व पुरुष के मिलने से इनकी संख्या 25 हो जाती है । इनमें से प्रकृति व उससे निर्मित बाकी के सभी तत्त्वों की उत्पत्ति का आधार त्रिगुणों की समान अवस्था है । यह सभी 24 तत्त्व जड़ रूप में होते हैं । एकमात्र पुरुष ही है जिसकी सत्ता चेतन रूप में है ।

 

हमारे सभी धर्म ग्रन्थों में पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा को माना जाता है । पुरुषार्थ चतुष्टय का अर्थ होता है मनुष्य जीवन का उद्देश्य अथवा लक्ष्य । जिसके  चार अंग माने गए हैं । 1. धर्म, 2. अर्थ, 3. काम व 4. मोक्ष । इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय के पालन को ही जीवन का प्रयोजन कहा जाता है । प्रत्येक व्यक्ति का यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह धर्म का पालन करते हुए धन का उपार्जन करे । फिर उस धन से अपनी कामनाओं व इच्छाओं की पूर्ति करते हुए जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष को प्राप्त करे ।

 

जब यह गुण आत्मा के भोग व अपवर्ग के उद्देश्य को पूरा कर देते हैं । तब उनका कोई कार्य शेष नहीं बचता अर्थात वह पुरुषार्थ से शून्य या रहित हो जाते हैं । इस प्रकार उन गुणों का वापिस अपने कारण रूप में लीन हो जाना ही कैवल्य अर्थात मुक्ति कहलाता है ।

 

गुणों के अपने कारण में लीन हो जाने से आत्मा ( पुरुष ) अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है । इसके पश्चात उस जीवात्मा का कभी भी प्रकृति व उससे उत्पन्न किसी भी पदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित होने पर वह जीवात्मा परमानन्द की स्थिति को प्राप्त हो जाता है ।

 

इस अवस्था में योगी के चित्त की सभी वृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है । उसके सभी क्लेश पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं ।

 

निष्कर्ष :- इस प्रकार जब एक योगी निरन्तर योग साधना का अभ्यास करते हुए अपने चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध कर देता है । तब वह मनुष्य जीवन के लक्ष्य अर्थात समाधि को प्राप्त कर लेता है । समाधि की प्राप्ति हो जाने पर योगी इस जीवन – मरण के कालचक्र से पूरी तरह से मुक्त हो जाता है । और परमानन्द की स्थिति में विचरण करता है । यही उस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप होता है । जिसमें वह सभी वृत्तियों व क्लेशों से पूरी तरह से मुक्त हो जाता है । इसी मुक्ति अथवा मोक्ष के साथ योग के सबसे पहले सुव्यवस्थित योग शास्त्र का समापन होता है ।

 

जैसे ही कोई व्यक्ति योगशास्त्र की इस अनुपम शिक्षा को अपने व्यक्तिगत जीवन में आत्मसात करेगा । वैसे ही वह व्यक्ति निश्चित रूप से मोक्ष का अधिकारी बनेगा । आवश्यकता केवल योगसूत्र की शिक्षाओं को अपने जीवन में लागू करने की है ।

 

इसी सूत्र के साथ यहाँ पर योगसूत्र समाप्त होता है ।

 

धन्यवाद

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  1. ??Charan sparsh sadar Prnam Aacharya ji! Prnam hai un mahan rishi Swami Swatamaram RAM JI ko !Prnam Aacharya Somveer ji dvara bhashyakrit yog Darshan ji ko ! Dhnyavad Aacharya ji is sunder yogsutra ke sunder v saraltam vyakhya ke liye jinke gyan ke bina ye jivan adhura rh jata. . Is vastvik gyan ke sath aatmvibhor krne ke liye aapka hriday se dhnyavad! Om om om??

  2. Bahut Sundar!…vratti nirodh se klaish mukti, samadhi,anandprapti,moksh ityadi ?????????..anupam gyan yatra karane k liye hardik dhanyawad.

  3. Pranaam Sir! ?? Thank you very much sir. It’s our pleasure to have been guided by so highly qualified guru like you. The yoga Sutra explanation has been very beneficial and may you continue to guide us.

  4. ॐ गुरुदेव*
    आपने हम सब योगार्थियों को इतने सरल एवं सुबोध भाषा में अति गोपनीय योग विद्या का अनवरत रूप से रसपान कराया। अस्तु आपके इस परम अनुग्रह के लिए हम सभी योगार्थियों की ओर से आपको बारम्बार चरण स्पर्श।
    साथ ही साथ ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपके ऊपर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखे व आपको अपने दिव्य ज्ञानामृत से अभिसिंचित करता रहे।

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