सुखानुशयी राग: ।। 7 ।।

शब्दार्थ :- सुख, ( आनन्द ) अनुशयी, ( भोगने के बाद उसी आनन्द को प्राप्त करने की इच्छा बनी रहना ही ) राग, ( राग नामक क्लेश है । )

सूत्रार्थ :- सुख या आनन्द को भोगने अर्थात एक बार प्राप्त करने के बाद, उसी सुख या आनन्द को बार- बार प्राप्त करने की इच्छा होना ही राग नामक क्लेश होता है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में राग नामक क्लेश का स्वरूप बताया गया है । राग का अर्थ है विराग या वैराग्य का अभाव होना । वैराग्य या विराग का अर्थ है किसी भी सुख भोग की वस्तु के प्रति लालसा या तृष्णा का न होना ।

योगदर्शन के समाधिपाद में चित्त की वृत्तियों के निरोध करने के उपायों में अभ्यास व वैराग्य के पालन की बात कही गई है । इसका अर्थ यह हुआ कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध होने से साधक को समाधि की प्राप्ति होती है । और ठीक इसके विपरीत यदि साधक को किसी वस्तु या पदार्थ के प्रति लगाव उत्पन्न होता है, तो वह क्लेश योग साधना में बाधा ही उत्पन्न करेगा । इसलिए योग साधक को इस राग नामक क्लेश से बचना चाहिए ।

अब हम राग के स्वरूप को जानने का प्रयत्न करेंगें । जब हमें कोई वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति बहुत अच्छा लगता है तो हमें उस वस्तु, पदार्थ व व्यक्ति के प्रति आसक्ति हो जाती है । इस प्रकार अपनी पसंदीदा वस्तु, पदार्थ व व्यक्तियों से हमें जिस सुख या आनन्द का अहसास होता है । उसे हम बेहद पसन्द करते हैं । एक बार जब हम उनसे सुख प्राप्त कर लेते हैं, तो उनकी अनुपस्थिति में हमें बार – बार उसी सुख या आनन्द को पुनः प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न होती है । यह लालसा या तृष्णा ही राग नामक क्लेश होता है ।

उदाहरण स्वरूप :- जब हम अपनी पसन्द का स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करते हैं तो हमें उससे खुशी मिलती है । जिससे हमारे मन में उसी स्वादिष्ट भोजन को बार- बार प्राप्त करने की
इच्छा या लालसा बनी रहती है । यह भोजन के प्रति उत्पन्न राग होता हैं । ठीक इसी प्रकार जब हम किसी व्यक्ति को बेहद पसंद करते हैं और उसके साथ रहने से हमें अत्यधिक सुख या आनन्द मिलता है, तो हम बार- बार उससे मिलने वाले सुख को प्राप्त करने की लालसा रखते हैं । यह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति उत्पन्न हुआ राग है । इसके अतिरिक्त जब हम किसी अत्यंत खूबसूरत जगह पर घूमने जाते हैं, तो वहाँ पर हमें सुख का अहसास होता है । उसी सुख को बार- बार प्राप्त करने की इच्छा रखना । इसे स्थान विशेष के प्रति उत्पन्न हुआ राग कहते हैं । इस राग से हमारी विषय भोग की वस्तुओं में आसक्ति बनी रहती है । जो साधक को योगमार्ग से विचलित करती है । इसलिए इसे राग नामक क्लेश कहा है|

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! सुन्दर सत्य ! धन्यवाद! ओ3म्! ?

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