बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ: ।। 51 ।।

शब्दार्थ :- बाह्य ( श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोकना ) आभ्यन्तर ( श्वास को अन्दर लेकर अन्दर ही रोकना ) विषय ( कार्य या कर्म का ) आक्षेपी ( त्याग या विरोध करने वाला ) चतुर्थ: ( यह चौथा प्राणायाम है । )

सूत्रार्थ :- श्वास को बाहर रोकने व अन्दर रोकने के विषय अर्थात कार्य का त्याग या विरोध करने वाला यह चौथा प्राणायाम है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में चौथे प्राणायाम की विधि का वर्णन किया गया है ।

चौथे प्राणायाम की विधि बिलकुल अलग प्रकार की है । इसकी विधि को बताते हुए कहा है कि पहले और दूसरे प्राणायाम की विधियों के विपरीत आचरण करना ही चौथे प्राणायाम की विधि है ।

इसके लिए एक बार फिर से पहले और दूसरे प्राणायाम की विधियों को समझ लेते हैं ।

पहला प्राणायाम बाह्यवृत्ति होता है । जिसमें श्वास को शरीर से बाहर निकाल कर अपने सामर्थ्य के अनुसार बाहर ही रोक दिया जाता है । इसे बाह्यवृत्ति प्राणायाम कहा है ।

दूसरा प्राणायाम आभ्यन्तर वृत्ति होता है । जिसमें श्वास को अन्दर लेकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार अन्दर ही रोके रखते हैं । यह आभ्यन्तर वृत्ति प्राणायाम कहलाता है ।

अब यह जो चौथा प्राणायाम बताया गया है । इसमें मुख्य रूप से ऊपर वर्णित इन दोनों ही प्राणायामों की विधियों का विरोध इनसे विपरीत विधि का उपयोग किया जाता है । जिसका वर्णन इस प्रकार है –

पहले पूरे श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दें । अब जैसे ही प्राण को अन्दर लेने की इच्छा या मन हो तो वैसे ही उसे अन्दर लेने की बजाय अन्दर बचे हुए प्राण को ही बाहर निकाल दें । ऐसा तब तक करते रहें जब तक की पूरा प्राण बाहर न निकल जाए या प्राण को और बाहर न निकाला जा सके ।

इसी प्रकार पूरे प्राण को अन्दर लेकर उसे अन्दर ही रोक लें । अब जैसे ही प्राण बाहर निकलने की कोशिश करें वैसे ही बाहर बचे हुए प्राण को और अन्दर भर लें । इसे भी तब तक अन्दर भरते रहें जब तक कि श्वास को अन्दर लेने की सम्भावना समाप्त न हो जाए ।

इस प्रकार यह चौथा प्राणायाम ( बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी ) कहलाता है । इस चौथे प्राणायाम को आरम्भ में केवल तीन- तीन बार ही करें । कुछ समय के बाद गुरु के निर्देशन में इसके अभ्यास को बढ़ाया जा सकता है ।

विशेष :- कोई भी आसन, प्राणायाम या अन्य यौगिक अभ्यासों को केवल पुस्तकों में ही पढ़कर इनका अभ्यास न करें । इनका अभ्यास हमेशा किसी अच्छे योग गुरु के निर्देशन ( देखरेख ) में ही करें । अन्यथा लाभ की जगह हानि भी हो सकती है ।

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! इस बेहतरीन ढंग से सूत्र को प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ?

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