अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।। 5 ।।
शब्दार्थ :- अनित्य, ( जो नाशवान अर्थात जिसका अन्त निश्चित हो जैसे – मनुष्य का शरीर ) अशुचि, ( अशुद्ध या अपवित्र ) दुःख, ( कष्ट या तकलीफ और ) अनात्मसु, ( अचेतन ) को क्रमशः नित्य, ( अन्नत अर्थात जिसका कभी भी अन्त न हो जैसे – ईश्वर ) शुचि, ( शुद्ध या पवित्र ) सुख, ( आनन्द और ) आत्मा, ( चेतन ) मानना ही अविद्या, ( मिथ्या या विपरीत ज्ञान है । )
सूत्रार्थ :- नाशवान, अशुद्ध, तकलीफ व अचेतन को क्रमशः अन्नत, शुद्ध, आनन्द और चेतन मानने की भूल करना ही अविद्या नामक क्लेश होता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अविद्या के स्वरूप को बताया गया है । अविद्या का अर्थ है किसी वस्तु या पदार्थ को उसके वास्तविक स्वरूप से विपरीत अर्थात उल्टा समझना । जैसे- दिन को रात और रात को दिन समझना, साँप को रस्सी और रस्सी को साँप समझना आदि ।
इस सूत्र में चार प्रकार के उदाहरणों द्वारा भी अविद्या के स्वरूप को ही समझाया गया है । जो इस प्रकार है –
- अनित्य को नित्य मानना :- अनित्य का अर्थ है नाशवान अर्थात जो कुछ समय के बाद समाप्त हो जाते हैं । जैसे मनुष्य का शरीर, धन- दौलत, आदि । जो क्षणभंगुर ( जो एक पल में ही खत्म हो जाए ) होता है उसे ही नाशवान कहा जाता है । मनुष्य का शरीर, धन- दौलत व पद- प्रतिष्ठा आदि सभी क्षणभंगुर हैं । लेकिन जब व्यक्ति इन सभी क्षणभंगुर वस्तुओं को अन्नत मानने लगता है । जैसे कि यह मेरा शरीर, मेरा पैसा, मेरा पद आदि सदा मेरे साथ रहेंगें तो यह अविद्या कहलाती है । क्योंकि न ही तो यह शरीर सदा साथ देगा न ही पद व पैसा सदा साथ रहेगा । यह सब एक निश्चित समय के लिए हमारे पास रह सकते हैं । उसके इन सबका नाश होना निश्चित है । अतः अविद्या अर्थात झूठे ज्ञान के द्वारा इन सभी नाशवान वस्तुओं को अन्नत अर्थात जिसका कभी अन्त न हो ऐसा मानना केवल मूर्खता है । जब हम इस तरह से अविद्या के प्रभाव में आकर गलत ज्ञान को सही मानते हैं । यही अविद्या का स्वरूप कहलाता है ।
- अशुचि को शुचि मानना :- अशुचि का अर्थ है अशुद्ध या अपवित्र । जो पदार्थ अशुद्ध या अपवित्र होता है उसे शुद्ध अथवा पवित्र मानने की भूल करना भी अविद्या का ही स्वरूप है । जैसे कुछ व्यक्ति अपने शरीर को शुद्ध व पवित्र मानते हैं लेकिन वास्तव में तो हमारा शरीर विभिन्न प्रकार के मलों अर्थात गन्दगी से भरा पड़ा है । इस प्रकार अज्ञान से वशीभूत होकर अपवित्र को पवित्र समझना भी अविद्या का ही स्वरूप है ।
- दुःख को सुख मानना :- इस संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख पाने की इच्छा रखता है । लेकिन वर्तमान में वास्तविक सुख किसी को मिलता दिखाई नहीं दे रहा । इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है अविद्या । अविद्या के कारण मनुष्य दुःख को ही सुख समझने की भूल कर बैठता है । और सदा दुःखमय जीवन जीता रहता है । जैसे – कुत्ते को जब सुखी हड्डी मिल जाती है तो वह उसे खाना शुरू करता है परन्तु सुखी हड्डी से उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । लेकिन अज्ञानता के कारण वह उसे चबाता ही रहता है । और ऐसा करने से अन्त में कुत्ते का स्वंम का खून उस हड्डी लग जाता है । जिसे वह हड्डी से निकला खून समझकर चाटता रहता है । लेकिन कुछ समय बाद जब उसे अपने मुहँ में दर्द का अहसास होता है, तो वह हड्डी को छोड़ देता है । ठीक इसी प्रकार का काम मनुष्य अपने जीवन में करता रहता है । जो दुःख है उसे वह अविद्या अर्थात गलत जानकारी के कारण सुख समझने की भूल करता रहता है । जिसे अपनी भूल का अहसास ठीक वैसे ही होता है जैसे कुत्ते को होता है । लेकिन अफसोस है उस समय तक काफी देर हो चुकी होती है ।
- अनात्मा को आत्मा मानना :- अनात्मा का अर्थ है अचेतन और आत्मा का अर्थ है चेतन । आत्मा चेतन व अनात्मा अचेतन होती है । आत्मा अजर, अमर होती है । अर्थात जिसकी कभी भी मृत्यु नहीं होती व जिसमें कभी भी बुढ़ापा नहीं आता । न ही जिसे कोई अग्नि जला सकती है न ही पानी उसे गीला कर सकता है । और न ही वायु जिसे सूखा सकती है । यह आत्मा का स्वरूप है । लेकिन हम अविद्या के कारण अपने शरीर, इन्द्रियों, ( आँख, नाक, कान आदि ) व मन आदि को आत्मा मानने की भूल करते हैं । जबकि इनका अन्त तो निश्चित है । यह सभी क्षणभंगुर हैं ।
उपर्युक्त वर्णन से हमें अविद्या के स्वरूप का ज्ञान होता है ।