स्थिरसुखमासनम् ।। 46 ।।
शब्दार्थ :- स्थिर ( स्थिर अर्थात बिना हिले – डुले एक ही स्थिति में रहना ) सुखम् ( सुखमय अर्थात आरामदायक स्थिति या अवस्था ) आसनम् ( आसन होता है । )
सूत्रार्थ :- शरीर की वह स्थिति जिसमें शरीर बिना हिले- डुले स्थिर व सुखपूर्वक अवस्था में रहता है । वह आसन कहलाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अष्टांग योग के सबसे प्रचलित अंग अर्थात ‘आसन’
की परिभाषा को बताया गया है ।
इस सूत्र को आसन की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है । यह आसन की सबसे प्रमाणिक परिभाषा है ।
सामान्य तौर पर भारतीय परम्परा के अनुसार अतिथि सत्कार के लिए भी आसन शब्द का प्रयोग किया जाता है । जब भी कोई अतिथि अथवा मेहमान हमारे घर आता है तो सबसे पहले हम उसे बैठने के लिए ही आमंत्रित करते हैं । जिसमें हम कहते हैं कि कृपया आसन ग्रहण कीजिए । अर्थात कृपया बैठ जाएं । इस प्रकार आसन को हम सामान्य बोलचाल में प्रयोग करते रहते हैं । लेकिन उस आसन और योग के आसन में काफी अन्तर होता है । जिसे हम आसन की परिभाषा से समझ सकते हैं ।
आसन की परिभाषा में दो ही शब्दों का प्रयोग किया गया है एक स्थिरता और दूसरा सुख । अतः शरीर की स्थिर व सुखमय अवस्था आसन कहलाती है । जिस अवस्था में हमारा शरीर ज्यादा समय तक बिना हिले- डुले रहता है । वह आसन कहलाता है । फिर चाहे वह बैठने की स्थिति हो, खड़े होने की या लेटने की ।
योगसूत्र में आसनों के कोई प्रकार या नाम नहीं बताए हैं । जिस प्रकार से अन्य योग ग्रन्थों में बताए गए हैं । इसलिए योगसूत्र के अनुसार आसन का दायरा बहुत व्यापक है । उसे कुछ आसनों में सीमित नहीं किया जा सकता ।
योग साधना में आसन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि योग की सभी साधनाओं के लिए शरीर का स्थिर व सुखमय होना अनिवार्य है । इसलिए पहले आसनों में सिद्धि प्राप्त करना आवश्यक होता है । बाद में ही प्राणायाम व अन्य ध्यान आदि की विधियाँ की जा सकती हैं ।
इसलिए पहले आसन का सिद्ध होना जरूरी है ।
वर्तमान समय में आसन के विषय में बहुत सारी भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं । उन सभी भ्रांतियों के निवारण के लिए योगसूत्र सबसे उपयुक्त साधन है । योगसूत्र योग का पहला प्रमाणित ग्रन्थ है । योगसूत्र में आसन के जिस स्वरूप को बताया गया है । उसी को आधार मानकर हम आसन से सम्बंधित सभी भ्रांतियों से बच सकते हैं ।
आसन को योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है । बहुत सारे व्यक्तियों का मानना है कि आसन ही सम्पूर्ण योग है । शायद कोई विरला ही होगा जो आसन के विषय में नहीं जानता होगा । जैसे ही हमारे मस्तिष्क में योग शब्द आता है वैसे ही आसनों का चित्र हमारे सामने आता है ।
महर्षि पतंजलि ने इसे अष्टांग योग के तीसरे (3) अंग के रूप में माना है ।
वहीं हठयोग आचार्य स्वामी स्वात्माराम ने अपनी अनुपम रचना “ हठप्रदीपिका” में आसन को योग के पहले अंग के रूप में मान्यता दी है ।
महर्षि घेरण्ड ने अपनी योग की अनुपम कृति “घेरण्ड संहिता” में आसन को योग के दूसरे अंग के रूप में मान्यता प्रदान की है ।
Thanku sir??
?प्रणाम आचार्य जी! बहुत सुन्दर व सटिक व्याख्या ?इस सुंदर ज्ञान व सही माग॔दश॔न के माध्यम से हम जीवो के जीवन मे ये सुन्दर प्रकाश लाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य जी!? ?
Thanku very much sir
Nice guru ji
ॐ गुरुदेव*
आपने योग के प्रसिद्ध अंग आसन की बहुत ही सरल व सुंदरतम व्याख्या प्रस्तुत की है । वास्तव में यदि कोई व्यक्ति योग के संपूर्ण अंगों को अपने जीवन में आत्मसात कर ले तो उसका जीवन दैव तुल्य हो जाएगा।
हम सभी योगार्थियों को योग के इस अमृत रस का पान कराने हेतु आपको शत _शत नमन ।
By titeness with happiness we Will to get asana,s perfection guru ji.