समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।। 45 ।।

 

शब्दार्थ :- ईश्वर- प्रणिधानात् ( अपने समस्त कर्मों का समर्पण ईश्वर में करने से ) समाधि- सिद्धि: ( समाधि की सिद्धि अर्थात प्राप्ति होती है । )

 

सूत्रार्थ :- बिना किसी फल की इच्छा के अपने सभी कर्मों को ईश्वर में समर्पित करने से साधक को इस जीवन का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । जिससे वह इस प्रकृति, जीवात्मा और ईश्वर या परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को सही प्रकार से जान लेता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में नियम के अन्तिम अंग अर्थात ईश्वर प्रणिधान के फल की चर्चा की गई है ।

 

ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है बिना किसी प्रकार के लौकिक फल की इच्छा के अपने सभी कर्मों का ईश्वर में समर्पण करना ।

 

इस ईश्वर प्रणिधान के पालन से साधक को अपने जीवन के लक्ष्य अर्थात समाधि की प्राप्ति होती है ।

यहाँ पर ईश्वर प्रणिधान को योग के स्वतंत्र अंग के रूप में प्रस्तुत किया है । इसका अर्थ यह है कि केवल ईश्वर प्रणिधान के पालन मात्र से भी समाधि को प्राप्त किया जा सकता है । लेकिन यह उन उच्च कोटि के साधकों के लिए है जिनकी साधना उच्च स्तरीय है ।

 

ईश्वर प्रणिधान का पालन करने से साधक में भी ईश्वर के ज्ञान का अंश आता है । और ईश्वर का ज्ञान तो यथार्थ ज्ञान है । उसमें किसी तरह का कोई दोष नहीं है । उसका ज्ञान पूरी तरह से दोष रहित है । इस प्रकार दोष रहित यथार्थ ज्ञान से ही मोक्ष या समाधि की प्राप्ति होती है ।

 

इस प्रकार जब हमें दोष रहित ज्ञान की प्राप्ति होती है तो हमें भी सभी पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।

 

ईश्वर प्रणिधान से प्राप्त विशुद्ध ज्ञान से साधक की बुद्धि देशान्तर, ( स्थान ) देहान्तर, ( शरीर ) व कालान्तर, ( समय या काल ) में जो भी पदार्थ हैं उनको उनके यथार्थ स्वरूप में जानने वाली हो जाती है ।

 

सभी पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानने से ही समाधि की प्राप्ति हो सकती है ।

 

अतः ईश्वर प्रणिधान के अनुष्ठान से ही इसकी ( समाधि ) प्राप्ति होती है ।

 

 

आगे के तीन सूत्रों ( 46, 47 व 48 ) में हम अष्टांग योग के सबसे प्रचलित अंग अर्थात ‘आसन’ का वर्णन करेंगें ।

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