कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस: ।। 43 ।।
शब्दार्थ :- तपस: ( तप के पालन या प्रभाव से ) अशुद्धि- क्षयात् ( अशुद्धि का नाश होने से ) काय ( काया अर्थात शरीर की ) इन्द्रिय ( इन्द्रियों अर्थात कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की ) सिद्धि: ( सिद्धि प्राप्त होती है । )
सूत्रार्थ :- तप के अनुष्ठान से अशुद्धि का सर्वथा नाश होता है । जिससे साधक को शरीर व इन्द्रियों की सिद्धि प्राप्त होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में तप के फल की चर्चा की गई है ।
जब साधक योग साधना करते हुए सभी प्रकार के द्वन्द्वों को बिना किसी विरोध के सहन करता रहता है, तो वह तप कहलाता है ।
तप के पालन करने से साधक की सारी गन्दगी दूर हो जाती है । जिस प्रकार से सोने को अग्नि में तपाने से उसके भीतर की सारी गन्दगी अर्थात उसके सभी दोष समाप्त हो जाते हैं । ठीक इसी प्रकार तप का पालन करने से हमारे शरीर की शुद्धि हो जाती है । हमारे शरीर के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं ।
जैसे ही तप के पालन से हमारे शरीर की शुद्धि होती है वैसे ही हमारा शरीर स्वस्थ, सुन्दर, निर्मल, बलवान व सुदृढ बनता है । और हमें अणिमा आदि शारीरिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
जिस प्रकार अशुद्धि का नाश होने से शरीर की शुद्धि होती है उसी प्रकार हमारी इन्द्रियों की भी शुद्धि होती है । जिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है । जैसे – सूक्ष्म पदार्थों को भी दूर से स्पष्ट देखने, दूर की ध्वनियों को स्पष्ट सुनने आदि की योग्यता बढ़ जाती है । इसी प्रकार सभी इन्द्रियों की ताकत बढ़ती है ।
अतः तप के पालन करने से साधक की सभी अशुद्धियों का नाश होता है । और उसे शरीर व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं । जिससे उसे शारीरिक व इन्द्रिय सिद्धि प्राप्त होती है ।