सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रिय जयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ।। 41 ।।

 

शब्दार्थ :- च ( और ) सत्त्वशुद्धि ( बुद्धि की शुद्धि ) सौमनस्य ( मन की सौम्यता अर्थात प्रसन्नता ) एकाग्र्य ( मन की स्थिरता या एकाग्रता ) इन्द्रियजय ( कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण ) आत्मदर्शन ( आत्म -साक्षात्कार की ) योग्यत्वानि ( योग्यता आती है )

 

सूत्रार्थ :- इसके अतिरिक्त शौच के पालन से बुद्धि की शुद्धि होती है । बुद्धि की शुद्धि से मन प्रसन्न होता है । मन के प्रसन्न होने से उसमें एकाग्रता बढ़ती है । एकाग्रता के बढ़ने से इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त होता है । और इन्द्रियों पर नियंत्रण होने से साधक में आत्म – साक्षात्कार करने की योग्यता प्राप्त होती है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में शौच के पालन से मिलने वाले अन्य फलों की चर्चा की गई है ।

जब साधक बाह्य व आन्तरिक शौच का पूरी तरह से पालन करता है तो उसके मल समाप्त हो जाते हैं । बाह्य शुद्धि से उसकी अपने व दूसरों के शरीर से आसक्ति खत्म हो जाती है । जिससे वह अनासक्त हो जाता है । और आन्तरिक शुद्धि से उसके सभी आन्तरिक मल अर्थात राग, द्वेष, लोभ, मोह व अहंकार आदि खत्म हो जाते हैं । इस प्रकार अनासक्त भाव होने व मानसिक मलों के समाप्त होने से साधक की बुद्धि सत्त्वगुण प्रधान हो जाती है । जिससे उसकी बुद्धि की शुद्धि हो जाती है ।

इस प्रकार जब बुद्धि में सत्त्वगुण प्रधान हो जाता है तो साधक का मन प्रसन्न रहने लगता है । क्योंकि उसके सभी आन्तरिक मलों  ( राग- द्वेष आदि ) की शुद्धि हो जाती है ।

और जैसे ही मन प्रसन्न होता है तो वह शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त हो जाता है । मन को बिना प्रसन्न किये कभी भी एकाग्र नहीं किया जा सकता है । इसलिए मन के प्रसन्न होते ही वह एकाग्र अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

और एकाग्र हुए मन से साधक अपनी इन्द्रियों ( कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों ) पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लेता है ।

इस प्रकार मन व इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होने से साधक आत्म – साक्षात्कार की अवस्था तक पहुँच जाता है ।

 

इस तरह शौच के पालन से साधक को अनेकों गुणों की प्राप्ति होती है । जिससे वह बुद्धि की शुद्धि से लेकर आत्म – साक्षात्कार तक की योग्यता प्राप्त कर लेता है ।

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