शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग: ।। 40 ।।

 

शब्दार्थ :- शौचत् ( शुद्धि के सिद्ध होने पर ) स्व ( स्वयं यानी अपने ) अङ्ग ( अंगो अर्थात शरीर के हिस्सों से ) जुगुप्सा ( घृणा या विरक्ति ) परै: ( तथा दूसरों के शरीर से भी ) असंसर्ग: ( सम्पर्क या सम्बन्ध बनाने की इच्छा नहीं रहती )

 

सूत्रार्थ :- शौच के सिद्ध हो जाने पर साधक अपने शरीर के अंगों से घृणा करने लगता है । साथ ही दूसरों के शरीर से भी उसकी सम्पर्क या सम्बन्ध बनाने की इच्छा समाप्त हो जाती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में शौच के प्रतिफल को बताया गया है ।

 

शुद्धि दो प्रकार की होती है- एक बाह्य और दूसरी आन्तरिक । जब साधक शौच अर्थात शुद्धि की पालना करने लगता है तो उसे अपने शरीर व मन में अनेकों दोष व दुर्गुण नजर आने लगते हैं । व्यक्ति जैसे- जैसे शुद्धि का पालन करता है वैसे- वैसे उसे शरीर व मन की गन्दगी का पता चलता है । इससे उसको आभास होने लगता है कि मनुष्य का यह शरीर अनेकों प्रकार के मलों ( गन्दगी ) से भरा पड़ा है ।

 

जैसे- पसीना, मल- मूत्र आदि ।

यदि हम नियमित रूप से अपने शरीर की शुद्धि न करें तो इस शरीर से बदबू आने लगेगी । इसलिए हम अपने शरीर की पानी व मिट्टी आदि से बाह्य शुद्धि करते हैं ।

 

ठीक इसी प्रकार हमारा मन भी अनेकों प्रकार के मलों से भरा पड़ा है । जैसे- ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, अहंकार आदि । इन्हें आन्तरिक मल अथवा गन्दगी कहते हैं । इनसे भी हमें बुरे विचारों की दुर्गन्ध आती है । जो हमारा जीना मुहाल कर देती है । अतः इसके लिए हम सत्य, सौहार्द, प्रेम व समानता आदि से अपनी मानसिक या आन्तरिक शुद्धि करते हैं ।

 

इस प्रकार शुद्धि करते – करते हमें अपने शरीर की गन्दगी का ज्ञान भली भाँति हो जाता है । जिससे हमें अपने शरीर के अंगों से घृणा अर्थात अनासक्ति हो जाती है । साथ ही हमें दूसरे व्यक्तियों के शरीर से भी आसक्ति नहीं रहती । जिसके फलस्वरूप हमारी दूसरों के शरीर के साथ भी कोई सम्बंध बनाने की इच्छा समाप्त हो जाती है । क्योंकि उनके शरीरों में भी हम गन्दगी देखकर उनसे आनाशक्त हो जाते हैं ।

 

जब तक हमारी आसक्ति इस शरीर से रहेगी तब तक हमारे भीतर वैराग्य का भाव जागृत नहीं हो सकता है । और बिना वैराग्य के मुक्ति सम्भव नहीं है ।

इसलिए शौच की सिद्धि से हमें योग साधना में सहायता मिलती है ।

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  1. श्रीमान जी,
    माफी चाहूंगा मगर,
    अपने अंगो से घृणा होना थोड़ा संदेहात्मक सा लगता है,
    हम घृणा की जगह मोह-भंग शब्द का प्रयोग कर सकते हैं ।

    क्यूंकि मोक्ष प्राप्ति में घृणा, नफरत, मारना या तोड़ना जैसे शब्दों का स्थान नं होकर वैराग , मोह भंग, परिवर्तन और ध्यान को गलत जगह से हटाकर सही जगह लगाने जैसे शब्द उचित रहते हैं ।

    आपका अपना
    क्रान्तिकारी विक्की साध दरियावाला

    1. विक्की साध जी सादर नमस्कार*
      विक्की जी !
      आचार्य श्री ने घृणा शब्द का प्रयोग इसलिए किया है ताकि मृदु साधक(सामान्य योगाभ्यार्थी) भी इस सूत्र के वास्तविक अर्थ को सहज ही ग्रहण/(समझ) कर सकें।

  2. ॐ गुरुदेव *
    आप ऐसे ही हम जैसे मृदु साधक का मार्ग दर्शन करते रहें, अत्युत्तम व्याख्या। आपको कोटि_ कोटि धन्यवाद ।

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